पंच केदार | Panch Kedar | हिमालय में स्थित शिव के पाँच धाम

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1. केदारनाथ | Kedarnath

पंच केदार (Panch Kedar) में केदारनाथ प्रथम केदार है। भारतवर्ष के हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड के रूद्रप्रयाग जिले में विहंगम हिमाच्छादित पाड़ियों की ओट में स्थित बाबा भोलेनाथ का परम धाम केदारनाथ शंकराचार्य द्वारा भारत के चार कोनो में स्थापित चार धामों में से एक है। केदारनाथ मंदिर द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर समुद्र तल से 3584 मीटर की ऊंचाई पर मंदाकिनी नदी के शीर्ष पर स्थित है।

इस मंदिर की महत्ता के कारण ही गढ़वाल का प्राचीन नाम केदारखण्ड पड़ा था। इस ब्लॉग के माध्यम से हमने केदारनाथ के संपूर्ण भौगोलिक एवं ऐतिहासिक तथ्यों को उजागर करने का प्रयास किया है। यहाँ हमने केदारनाथ से संबंधित संपूर्ण जानकारी को साझा किया है। आइए हिमालय की गोद में स्थित शिव के धाम केदारनाथ को और करीब से जानते हैं।

जिस राज्य में स्थित है - उत्तराखण्ड
जिस जिले में स्थित है - रूद्रप्रयाग
केदारनाथ मंदिर की समद्रतल से ऊँचाई - 3,583m (11,755ft)
पंच केदारों में - प्रथम केदार

केदार शब्द का अर्थ

केदार शब्द का अर्थ दलदल अथवा कीचड़ है। केदारपुरी ऐसी भूमि में पाई जाती है जो प्रायः चलते समय पांव के तले दलदलाती है। वह भूमि जलमय है, इसी से उस तीर्थ का नाम केदार हुआ और शिव जी का नाम केदारनाथ हुआ। यह सब यहाँ पर स्थित हिम के सैलाब के कारण से है। ग्लेशियरों से लगातार पानी के रिसाव के कारण यहाँ आसपास की भूमि नमी युक्त होती है।

केदारनाथ कहाँ स्थित है?

Kedarnath temple, पंच केदार | Panch Kedar
बर्फ की चादर में ढका धरती पर शिव का धाम केदारनाथ

केदारनाथ मंदिर भारत के उत्तराखण्ड राज्य के रुद्रप्रयाग जिले के गढ़वाल परगना नागपुर पट्टी मल्ला कालीफाट में हिमालय की गोद में समुद्र तट से 11,755 फीट की ऊँचाई पर केदारभूमि पर पहाड़ की जड़ पर महापथ हिमालय की चोटी के नीचे सम धरातल पर मंदाकिनी नदी की घाटी में स्थित है। यह मंदिर खर्चाखंड, भरतखंड और केदारखंड शिखरों के मध्य स्थित है। इसके वाम भाग में पुरंदर पर्वत है।

12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है केदारनाथ

गढ़वाल क्षेत्र में हिमालय में स्थित केदारनाथ धाम भारत के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक है। हिन्दू धर्म में पुराणों के अनुसार शिवजी जहाँ-जहाँ स्वयं प्रगट हुए उन बारह स्थानों पर स्थित शिवलिंगों को ज्योतिर्लिंगों के रूप में पूजा जाता है। ये संख्या में 12 है। सौराष्ट्र प्रदेश (काठियावाड़) में श्रीसोमनाथ, श्रीशैल पर श्रीमल्लिकार्जुन, उज्जयिनी (उज्जैन) में श्रीमहाकाल, ॐकारेश्वर अथवा ममलेश्वर, परली में वैद्यनाथ, डाकिनी नामक स्थान में श्रीभीमशंकर, सेतुबंध पर श्री रामेश्वर, दारुकावन में श्रीनागेश्वर, वाराणसी (काशी) में श्री विश्वनाथ, गौतमी (गोदावरी) के तट पर श्री त्र्यम्बकेश्वर, हिमालय पर केदारखण्ड में श्रीकेदारनाथ और शिवालय में श्रीघृष्णेश्वर।

हिंदुओं में मान्यता है कि जो मनुष्य प्रतिदिन प्रात:काल और संध्या के समय इन बारह ज्योतिर्लिंगों का नाम लेता है, उसके सात जन्मों का किया हुआ पाप इन लिंगों के स्मरण मात्र से मिट जाता है। प्रत्येक ज्योतिर्लिङ्ग का एक एक उपलिंग भी है जिनका वर्णन शिव महापुराण की कोटिरुद्र संहिता के प्रथम अध्याय से प्राप्त होता है।

 

केदारनाथ मंदिर की निर्माण शैली

देवभूमि उत्तराखण्ड में स्थित केदारनाथ धाम का मंदिर कत्यूरी निर्माण शैली में बनाया गया है। इसके निर्माण में भूरे रंग के विशाल पत्थरों का प्रयोग किया गया है। यह मंदिर छत्र प्रसाद युक्त है। मन्दिर के ऊपर पत्थर का ‘शिखर’, जिसके काष्ठ-छत्र सोने का कलश है, एक मनोहर दृश्य प्रस्तुत करता है। इसके गर्भ गृह में त्रिकोण आकृति की एक बहुत बड़ी ग्रेनाइट की शिला है जिसकी पूजा भक्तगण करते हैं। ग्रेनाइट के इस लिंग के चारों ओर अर्घा है जो अति विशाल है और एक ही पत्थर का बना है।

इसी स्वयंभू केदारलिंग की उपासना पांडवों ने भी की थी। सभा मंडप में चार विशाल पाषाण स्तंभ है तथा दीवारों के गौरवों में नव नाथों की मूर्तियां हैं। दीवारों पर सुंदर चित्रकारी भी की गई है। मंदिर के बाहर रक्षक देवता भैरवनाथ का मंदिर है। यहाँ अनेक कुंड हैं जिनमें शिव कुंड मुख्य है। एक लाल पानी वाला रुधिर कुंड भी है।

कत्यूरी शैली में निर्मित इस मंदिर का काष्ठवेष्ठिनी युक्त शिखर, स्वर्ण कलश के नीचे का ताम्रछत्रों का आच्छादन तथा गर्भ गृह में कत्यूरी शैली में लिखें अभिलेख, गढ़वाल के गौरवशाली अतीत को प्रदर्शित करते हैं।

केदारनाथ मंदिर में गर्भगृह, अंतराल और सभामंडप तीन भाग हैं। गर्भगृह चार स्तंभों पर आधारित और लगभग 3 मीटर मोटी दीवारों वाला है। इसका द्वार अलंकृत है। मंदिर का वर्तमान स्वरूप स्पष्ट तथा जीर्णोद्धार का परिणाम है। सूक्ष्म निरीक्षण से लगता है कि मंदिर ने तीन उत्थान देखे हैं। प्रथम उत्थान लेख और मूर्तियों से इसे गुप्तोत्तर काल से जोड़ता है। गर्भगृह, अंतराल द्वार, अलंकरण तथा मंदिर की मूर्तियां द्वितीय उत्थान की ओर संकेत करती हैं।

जबकि तृतीय स्थान 18वीं सदी के अंत में शिखर के जीर्णोद्धार तथा मंडप जोड़ने से हुआ। गुजरात के राजा कुमार पाल ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार 1160-70 के मध्य कराया था। 5-6 सदियों के उपरांत संस्कार रानी अहिल्याबाई होल्कर ने 1765-95 में मंदिर का तब जीर्णोद्धार कराया था जब मूल निर्माण क्षतिग्रस्त हो गया था।

केदारनाथ मंदिर का पौराणिक इतिहास

Kedarnath temple old picture, पंच केदार | Panch Kedar
केदारनाथ धाम का एक पुराना चित्र

‘वायुपुराण’ में लिखा है कि जब परमात्मा ने मानव सृष्टि उत्पन्न की थी उसी समय नर-नारायण को उसकी रक्षा के लिए भेजा। उन्होंने जगत के कल्याण के निमित्त गंधमादन पर्वत पर उग्र तब करके भगवान आशुतोष को प्रश्न किया। शिव जी प्रसन्न हुए और नर-नारायण को दर्शन देकर ‘वरंव्रूहि’ कहने लगे। नर-नारायण ने विनय की, प्रभु! हम विश्व के कल्याण के निमित्त आपका स्मरण करते हैं।

यदि आप हमारी सेवा से प्रसन्न हैं तो यह वर प्रदान करें कि आप सदैव प्रकट रूप में इन पर्वतों पर विराजमान रहें, जिससे संसार के जीव आपके दर्शन से मुक्ति लाभ करते रहें। भगवान भोलेनाथ ने नर-नारायण की प्रार्थना स्वीकार करके इस केदारभूमि को अपना स्थाई निवास स्थान स्वीकार किया। तब से या परम पावन तीर्थ केदारनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

दूसरी कथा यह है कि जब पाण्डव राजपाट छोड़कर हिमालय में केदारनाथ के दर्शन के लिए गए थे तब शिवजी ने उनको गोत्र हत्या का दोषी जानकर शिला रूप होकर पृथ्वी के भीतर घुसना चाहा। जिस बीच अग्रभाग पृथ्वी के अंदर घुस सका था कि उसी बीच महाबली भीम सेन ने पृष्ठ भाग को पकड़ लिया।

तब शिवजी ने प्रसन्न होकर पाण्डवों को दर्शन दिया था जिससे उनका गोत्र हत्या का पाप नष्ट हो गया था। वही शिला रूप अब ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध है। ऐसी भी गाथा है कि अग्रभाग जो पृथ्वी में घुस गया था टूटकर नेपाल में निकला है जो वहाँ पशुपतिनाथ के नाम से प्रसिद्ध है। शेष भाग उस शिला के हिमालय में चार और जगह पूजे जाते हैं। जो कि पंच केदार (Panch Kedar) नाम से जाने जाते हैं।

Kedarnath temple oldest picture, Panch Kedar | पंच केदार
केदारनाथ का प्राचीन एंव दुर्लभ चित्र

इस मंदिर की स्थापना आदि गुरु शंकराचार्य ने आठवीं सदी में की थी, किंतु मंदिर का निर्माण कत्यूरी राजाओं द्वारा 11वीं-12वीं शताब्दी में कराए जाने का अनुमान है। प्रार्थना कक्ष की दीवारें पौराणिक काल के प्रसिद्ध देवताओं एवं दृश्यों से चित्रित हैं। मंदिर के द्वार पर नंदी बैल की विशाल मूर्ति सजग प्रहरी के रूप में स्थित है।

मंदिर में एक कोणिया आकार की चट्टान भगवान शिव की आराधना के लिए सदा शिव के रूप में है। यह पाँच शैव तीर्थों में से एक है। पहला शैव तीर्थ नेपाल में पशुपतिनाथ, दूसरा कुमाऊँ में जागेश्वर, तीसरा गढ़वाल में केदारनाथ, चौथा हिमाचल में बैजनाथ तथा पांचवा तीर्थ कश्मीर में अमरनाथ है।

गंगोत्री यात्रा के बाद केदारनाथ यात्रा का विधान है। यात्रीगण मंदिर स्थित शिवलिंग में जल चढ़ाकर पूजा अर्चना करते हैं। लिंग पर घी लगाना, श्रावण मास में ब्रह्म कमल चढ़ाना तथा रुद्री पाठ करने का विशेष महत्व है।

जब पाण्डव पहुँचे केदारनाथ

वैदिक साहित्यों के अनुसार प्राचीन भारत में वैदिक काल के इतिहास के सबसे बड़े महाभारत युद्ध के पश्चात पांडवों ने केदारनाथ आकर अपने निकट संबंधियों की मृत्यु पर प्रेषित किया था। धार्मिक मान्यता है कि यहाँ महाभारत युद्ध के बाद पांडवों ने अपने निकट संबंधियों की मृत्यु पर प्रेषित किया था।

यह माना जाता है कि कुरुक्षेत्र के युद्ध के बाद अपने परिचितों एवं सगे संबंधियों को युद्ध में मारने के कारण पाण्डव स्वयं को दोषी महसूस कर रहे थे। उन्हें अपने पापों के प्रायश्चित के लिए भगवान शिव के आशीर्वाद की आवश्यकता थी, जबकि शिव पाण्डवों से मिलना नहीं चाहते थे। अतः वे पाण्डवों से निरंतर दूर भागते रहे। उन्होंने केदारनाथ में स्वयं को एक पहल के रूप में परिवर्तित कर लिया। पाण्डवों द्वारा निरंतर पीछा किए जाने के बाद वे सतह पर केवल कूवड़ वाला भाग छोड़कर शेष भाग सहित पृथ्वी में समा गए। भगवान के शरीर के शेष भाग 4 विभिन्न स्थानों पर पुनः प्राप्त हुए।

पंच केदारों में प्रथम है केदारनाथ

Panch Kedar | Kedarnath temple

उत्तराखंड देवभूमि में पंच बद्री की ही तरह ही पंच केदार (Panch Kedar) भी स्थापित है। वैदिक काल में 18 दिन तक चले महाभारत युद्ध के बाद जब पाण्डव अपने संबंधियों को मारने के कारण दोषी महसूस कर रहे थे तो वह अपने इस पाप का प्रायश्चित करने उत्तराखण्ड की भूमि पर आए। यहाँ उन्होंने महादेव शिव की आराधना की। परंतु भगवान शिव उनको दर्शन नहीं देना चाहते थे। केदारनाथ पहुंचने पर भगवान शिव जब उन्हें देखकर छिपने लगे तो व धरती में समाने लगे तो महाबली भीम ने उनके पष्ठ भाग को पीछे से पकड़ लिया।

जिससे महादेव ने प्रशन्न होकर पाण्डवों को दर्शन दिये। तत्पश्चात पांडवों ने स्वर्गारोहिणी के लिए प्रस्थान किया। महादेव शिव के शरीर के शेष चार भाग विभिन्न स्थानों पर पुनः प्राप्त हुए। इनमें तुंगनाथ में भुजाएं, रुद्रनाथ में मुँह, मद्महेश्वर में नाभि एवं कल्पेश्वर में केश की पूजा उनके प्राप्त स्थलों पर की जाती है। इन्हीं पाँच स्थलों को पंच केदार (Panch Kedar) कहा जाता है। केदारनाथ धाम पंचकेदारों में प्रथम केदार है।

केदारनाथ के रावल

केदारनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी जिन्हें रावल कहा जाता है, दक्षिण के मालाबार के जंगम जाति के होते हैं। रावल को एक से अधिक से शिष्य रखने का अधिकार होता है। उसके शिष्य भी उसी जंगम जाति के दक्षिणी होते हैं। रावल को विवाह करने का अधिकार नहीं है ना उसके शिष्य को इस प्रकार का अधिकार है। रावल स्वयं पूजा नहीं करता, उसके शिष्य और गुरु भाई पूजा करते हैं। रावल के उत्तराधिकारी उसके चेलों में से होते हैं। रावल को मंदिर पर सर्व अधिकार होता है।

जब पाण्डू पुत्र युधिष्ठिरादि स्वर्गारोहणी की तरफ जा रहे थे, उस काल में गणों के स्वामी वीरभद्र से कुछ अवज्ञा हो जाने पर शिवजी ने उन्हें शाप दिया कि तुम मानव जीवन ग्रहण करो अर्थात मनुष्य जन्म लेकर इस अवज्ञा का प्रायश्चित करो। तब वीरभद्र ने आर्त्तस्वर से भगवान भोलेनाथ की स्तुति की।

तब शिवजी ने प्रसन्न होकर कहा कि तुम चौल देश में जाकर वेद पाठी ब्राह्मण के घर जन्म लेकर भुकुण्ड नाम से प्रसिद्ध होगे, तब दृढ़ भक्तिपूर्ण मेरा अर्चन-पूजन करते हुए उसी तरह से मेरे समीप आओ। गणाधीश ने शिव शिवाज्ञा शिरोधार्य करके चौल देश में एक वेदपाठी ब्राह्मण के घर जन्म लिया।

उसका नाम वहाँ भुकुण्ड हुआ, और वेद शास्त्र संपन्न होकर युवावस्था में ब्रह्मचर्य धारण करके वाराणसी को चला गया। उसके वह गंगोत्री होते हुए रुद्रनाथ, कल्पेश्वर आदि स्थानों में भक्ति पूर्ण पूजन-अर्चन करता रहा। वहाँ से फिर काशी गया और वहाँ उन्होंने कुछ शिष्य बना लिए।

अपने शिष्यों को साथ लेकर वह केदारपुरी आया। यहाँ आकर उसने शिवजी को प्रसन्न करने के निमित्त उग्र तपस्या की। शिव जी ने प्रसन्न होकर भुकुण्ड को दर्शन देकर वरदान मांगने को कहा।

तब भूकुण्ड ने विनय किया कि प्रभु यदि आप मुझसे प्रश्न हैं तो मुझे इस मानवीय देह से मुक्ति प्रदान करके पहले की तरह अपनी सेवा में ले लीजिए और आगे आपके परम पुनीत केदारलिंग के पूजन अर्चन की प्रथा सदैव काल के लिए मेरे ही शिष्य संप्रदाय में रहने की आज्ञा प्रदान कीजिए।

तब शिवजी ने भूकुण्ड को मानव देह से मुक्त किया और केदारलिंग के पूजन अर्चन की प्रथा भूकुण्ड के शिष्य संप्रदाय में चलने की आज्ञा प्रदान की। तब से वही प्राचीन प्रथा उसी भूकुण्ड के शिष्य संप्रदाय में चली आ रही है।

केदारनाथ मंदिर के अधीन मंदिर

बद्रीनाथ मंदिर की तरह केदार मंदिर के अधीन भी कुछ मंदिर हैं जिनकी देखरेख और खर्च सब केदार मंदिर के अधीन है। वे मंदिर हैं –
मंदिर अगस्त्यमुनि, गुप्तकाशी, त्रियुगीनारायण, लक्ष्मीनारायण, गौरी देवी, मद्महेश्वर, तुंगनाथ, कालीमठ, रुद्रनाथ, गोपेश्वर और उखीमठ।

केदारनाथ धाम खुलने की तिथि

देवभूमि उत्तराखण्ड के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित श्री केदारनाथ धाम के कपाट खुलने की तिथि सदैव महाशिवरात्रि के पर्व पर भगवान केदारनाथ जी की शीतकालीन पूजा स्थली उखीमठ में वैदिक पंचांग पूजन के बाद घोषित की जाती है और कपाट खुलने के मुहूर्त को वैशाख मास के लिए निकाला जाता है। इस धाम को सदैव भैया दूज (दीपावली) के दिन बंद करने की परंपरा रही है।

शीत ऋतु में कहाँ होती है भगवान केदार की पूजा?

पंच केदार | Panch Kedar
उखीमठ स्थित प्राचीन ओमकारेश्वर मंदिर

शीत ऋतु में केदारनाथ धाम में भारी बर्फबारी के कारण मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं जिस कारण शीत ऋतु में छह माह भगवान केदारनाथ जी की नियमित पूजा उखीमठ स्थित प्राचीन ओमकारेश्वर मंदिर में होती है जहाँ द्वितीय केदार भगवान मद्महेश्वर की भोग मूर्ति भी शीतकाल में पूजा हेतु रहती है।

भुकुंट भैरव का मंदिर

Bhukunt bhairav temple, पंच केदार | Panch Kedar
खुले आसमान के नीचे केदारनाथ मंदिर से कुछ ऊँचाई पर स्थित भुकुंट भैरव का मंदिर

भुकुंट भैरवनाथ का मंदिर केदारनाथ मंदिर से दक्षिण की ओर स्थित है। भुकुंट भैरवनाथ को केदारनाथ मंदिर का क्षेत्रपाल कहा जाता है।  भुकुंट भैरव का यह मंदिर केदारनाथ मंदिर से करीब आधा किमी दूर दक्षिण की ओर स्थित है। यहाँ बाबा भैरव की मूर्तियाँ बिना छत के स्‍थापित की गई हैं। बाबा भुकुंट भैरव को केदारनाथ का पहला रावल माना जाता है। बाबा केदार की पूजा से पहले केदारनाथ में भुकुंट बाबा की पूजा किए जाने का विधान है और उसके बाद विधिविधान से केदानाथ मंदिर के कपाट खोले जाते हैं। 

शंकराचार्य की समाधि

Aadi guru shankaracharya samadhi, पंच केदार | Panch Kedar
केदारनाथ मंदिर के पास नवनिर्मित आदि गुरू शंकराचार्य की समाधि

कहा जाता है कि भारत वर्ष में चार कोनो में चार धाम स्थापित करने के पश्चात आदि गुरु शंकराचार्य ने 32 वर्ष की अवस्था में केदारनाथ में अपने प्राण त्याग दिए थे। आदि गुरु शंकराचार्य की समाधि केदारनाथ मंदिर के ठीक पीछे है। यह वही स्थान है जहाँ शंकराचार्य समाधिस्थ हुए थे।

आदि गुरु शंकराचार्य की देह त्यागने के संबंध में स्वामी आनंद स्वरूप ने बताते हैं कि जब शंकराचार्य ने चारों धामों की स्थापना करके सनातन धर्म की फिर से स्थापना की तब उन्हें लगा कि जिस उद्देश्य से उनका जन्म हुआ था, वह उन्होंने पूरे कर लिए हैं। वह अपने शिष्यों के साथ केदारनाथ में दर्शन करने पहुँचे। यहाँ उन्होंने शिष्यों के साथ भगवान के दर्शन किए।

शिवलिंग के दर्शन के बाद आदि गुरु शंकराचार्य की भगवान शंकर से बात हुई। उन्होंने उनसे देह त्यागने की अनुमति ली। आदि शंकराचार्य मंदिर से बाहर आए। शिष्यों को रोका और कहा कि पीछे मुड़कर मत देखना। आदि शंकराचार्य यहाँ विलुप्त हो गए। जहाँ पर विलुप्त हुए उसी जगह पर शिवलिंग की स्थापना की गई। उनका समाधि स्थल बनाया गया।

वर्ष 2013 की आपदा में वर्षों पुरानी समाधि और आदिगुरु की मूर्ति खंडित होकर ध्वस्त हो गई थी। इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केदारनाथ धाम में आदिगुरु शंकराचार्य और उनकी समाधि स्थल के महत्व को देखते हुए पुनर्निर्माण कार्य में इसे ड्रीम प्रोजेक्ट में शामिल किया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार 5 नवंबर 2021 को भगवान शिव के धाम केदारनाथ में आदि गुरु शंकराचार्य की मूर्ति का अनावरण किया। एक ही शिला काटकर बनाई गई शंकराचार्य की बारह फुट लंबी प्रतिमा का अनावरण करने के बाद प्रधानमंत्री ने उसके समक्ष बैठकर उनकी आराधना भी की।

चौराबाड़ी ताल | Chorabari Lake

केदारनाथ मुख्य मंदिर से लगभग 3 किलोमीटर की ऊँचाई पर ऊपर की ओर गगनचुंबी हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं व में चौराबाड़ी ग्लेशियर की ओट में स्थित खूबसूरत चोराबाड़ी ताल अत्यंत मनमोहक एवं पवित्र ताल है। चोराबारी झील को गांधी सरोवर भी कहते हैं। हरे-भरे बुग्यालों के बीच होकर गुजरकर चोराबारी ताल तक पहुँचना, इस ट्रैक को अत्यंत खूबसूरत व यादगार बना देता है। मानव की पहुँच के अभाव के कारण यह स्थान अत्यंत रमणीक, साफ सुथरा एवं पवित्र है।

चोराबारी झील, जिसे गांधी सरोवर के नाम से भी जाना जाता है, चोराबाड़ी ग्लेशियर के पास 3,900 मीटर (12,800 फीट) की ऊँचाई पर एक हिमनद झील है। यह भारत के उत्तराखण्ड राज्य के केदारनाथ मंदिर से लगभग 2 किमी (1.2 मील) ऊपर की ओर है, जो मंदाकिनी नदी प्रणाली का हिस्सा है।

केदारनाथ में जून 2013 को आई भीषण त्रासदी के कारण झील के पानी एक साथ बह कर नीचे की घाटी में गिर गया, जिससे एक विनाशकारी बाढ़ आई। घटना के बाद झील में सुधार नहीं हुआ क्योंकि अधिकांश मोराइन बह गए थे।

पंच केदार | Panch Kedar

साफ़-सुथरे चौराबाड़ी ताल से उसके आसपास स्थित हिमालय की चोटियों का मनोहारी चित्र देखने को मिलता है। यह गांधी सरोवर या गांधी ताल भी कहलाता है। सन 1948 में महात्मा गांधी की कुछ अस्थियां इस झील में भी विसर्जित की गई थीं, जिसके बाद इसका नाम बदलकर गांधी सरोवर कर दिया गया। किंवदंती के अनुसार, वह चौराबाड़ी ताल ही था, जहां पर भगवान शिव ने सप्तऋषियों को योग का ज्ञान दिया था।

रास्ते में मंत्रमुग्ध कर देने वाला मधु गंगा जलप्रपात आता है, जहाँ पर थोड़ी देर रूकने पर गहरी शांति का अनुभव होता है। एक आसान ट्रैक से होते हुए आप मंदिर से इस झील तक पहुँच सकते हैं, जो मूल रूप से कांति सरोवर के नाम से जानी जाती थी।

महाशिला, महापंथ या भैरोंझांप

केदारनाथ से लगभग 6 किलोमीटर दूरी पर ईशानकोण में एक महाशिला, महापंथ है जिसे स्थानीय भाषा में भैरोंझांप भी कहा जाता है। माना जाता है कि इस स्थान पर आनेक यात्री स्वर्ग लोक की कामना में प्राण त्याग करते थे। ब्रिटिश काल में यह प्रथा बंद कर दी गई।

केदारकल्प और केदारखण्ड में भी इस बात का जिक्र किया गया है। यात्री केदार निवास, केदार दर्शन, हंस तीर्थ में पित्र तर्पण के बाद ईशानमार्ग से उत्तर दिशा को बढ़ते हुए शिवपुरी स्वर्ग लोक जाने का आह्वान किया करते थे।

ज्ञातव्य है कि बद्रीनाथ में सतोपंथ, गंगोत्री में स्वर्गारोहणी व भैरवझांप नाम पाण्डवों की महापरायण परंपरा को निभाने वालों के दिए नाम हैं। केदारनाथ में सर्वप्रथम जाने वाले यूरोपीय यात्री स्किनर ने 1829 इसी में लिखा कि महापंथ में इस वर्ष प्राण त्यागने वालों की संख्या 15000 थी।

फादर आकले ने लिखा है कि 1831 में इस प्रथा को बंद करने तक यहाँ आत्महत्या का यह उत्सव बाजा बजाते लोगों के जुलूस, मंत्रोच्चारण व मंगल गीतों के साथ होता था। ऐसा कहा जाता है कि अनेक यात्री शिला से कूदने की अपेक्षा हिमशिखर की ओर बढ़ते चले जाते थे जब तक कि बर्फ में समा न जाएँ या अनंत निद्रा में लीन हो जाएँ।

हिमालय की गोद में बसा प्रकृति व ईश्वरीय अनुकंपा से सुसज्जित राज्य उत्तराखण्ड देवों की भूमि हैं। इसका प्राकृतिक सौंदर्य व आध्यात्मिक वातावरण देश-विदेश से लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है। यहाँ पर्यटक जहाँ एक ओर मन की शांति व सुखमय पल बिताने के लिए आते हैं तो वहीं दूसरी ओर कुछ प्रकृति प्रेमी देवभूमि की आस्था व इसके दुर्गम स्थलों को करीब से जानने के लिए आतुर रहते हैं।

ऐसे ही दुर्लभ व दुर्गम तालों में से एक है वासुकी ताल। केदारनाथ धाम से 8 किमी दूर 13,300 फीट की ऊँचाई पर स्थित यह सुन्दर ताल बेहद खूबसूरत एंव पवित्र है। दुर्गम हिमाच्छादित पर्वत चोटियों की तलहटी में स्थित इस झील तक पहुँचने के लिए पंहुचने के लिए मंदाकिनी के तट से लगे पुराने घोड़ा पड़ाव से होते हुए दूध गंगा के उद्गम की ओर सीधी चढ़ाई चढ़नी होती है।

Vasuki Tal lake. पंच केदार | Panch Kedar
वासुकी ताल

नाक की सीध में 4 किमी की चढ़ाई चढ़कर खिरयोड़ धार (सबसे ऊंची जगह) के बाद पहली बार खुला मैदान दिखता है। यहाँ से 2 किमी हलकी चढ़ाई के बाद केदारनाथ-वासुकी ताल ट्रैक की सबसे ऊँचाई वाली जगह जय-विजय धार (14000 फीट) आती है। इस जय-विजय धार से लगभग 200 मीटर उतरकर वासुकी ताल के दर्शन होने लगते हैं।

ब्रह्मकमल ही ब्रह्मकमल आते हैं नजर

Brahamakamal,  पंच केदार | Panch Kedar
उच्च हिमालयी घाटियों में खिलने वाला देव पुष्प ब्रह्मकमल

जैसे ही पथिक जय-विजय धार को पार करते हैं वैसे ही चारों और ब्रह्मकमल और अन्य जड़ी बूटियों की खूशबू उन्हें मंत्रमुग्ध करना शुरू कर देती है। इतनी ऊँचाई पर ट्रैक करना काफी कठिन व हौंसलों को पस्त करने वाला साबित होता है। लेकिन रह कठिन रास्ता आसपास के मंत्रमुग्ध कर देने वाले रास्तों, हरे-भरे बुग्यालों व फूलों के बीच से होकर गुजरते हुए आसान नजर आने लगते हैं।

पूर्णमासी के दिन यहाँ दिखते हैं वासुकि नाग

Vasuki Tal Lake,  पंच केदार | Panch Kedar

स्कंद पुराण के अनुसार वासुकी ताल वास्तव में गंगा के अंग कालिका नदी के जलधारण करने से बना तालाब है, जहाँ नागों के राजा वासुकी हर पल निवास करते हैं। स्कंद पुराण में वर्णित है कि श्रावण मास की पूर्णमासी के दिन इस ताल में मणि युक्त वासुकि नाग के दर्शन होते हैं। वासुकी ताल की परिधि लगभग 700 मीटर है।

इस तालाब के पानी से सोन नदी निकलती है। यही सोन नदी, केदारनाथ से निकलने वाली मंदाकिनी से सोनप्रयाग स्थान में मिलती है। वासुकी ताल का पानी बिल्कुल साफ है। हवा के बहाव के साथ पानी में खूबसूरती के साथ बनती तरंगे बेहद खूबसूरत लगती हैं।

हिंदुओं की पौराणिक कथाओं के अनुसार, रक्षा बंधन के पावन पर्व पर भगवान विष्णु इस झील में स्नान करते हैं।

गौरीकुंड | Gauri Kund

Gauri Kund,  पंच केदार | Panch Kedar

गौरीकुंड का गर्म पानी का तालाब हिंदुओं के लिए पावन स्थलों में से एक है, जहाँ पर वे डुबकी लगाने आते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस कुंड के पावन जल में डुबकी लगाने से व्यक्ति पवित्र हो जाता है। विहंगम परिदृश्यों से घिरा यह कुंड केदारनाथ मंदिर जाने वाले प्रसिद्ध ट्रैक का आरंभिक बिंदु भी है। यह कुंड गढ़वाल हिमालय में 6,000 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। श्रद्धालुगण देवी पार्वती को समर्पित गौरी देवी मंदिर के दर्शनों के लिए भी जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि यह वही जगह है जहाँ पर देवी पार्वती, भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए लंबी अवधि तक ध्यान मुद्रा में रही थी। इस क्षेत्र का संबंध भगवान गणेश की कथा से भी है, यहीं उनके शरीर पर हाथी का सिर जोड़ा गया था।

2013 में आई भीषण त्रासदी व भीम शिला

आझ से 9 वर्ष पूर्व 16 जून 2013 की रात केदारनाथ में आई भीषण त्रासदी उत्तराखण्ड राज्य की अब तक के सबसे बड़ी त्रासदी में से एक थी। चोराबारी ग्लेशियर के आसपास बादल फटने से चोराबारी ताल का रुका हुआ सारा पानी जल प्रलय बनकर केदारनाथ मंदिर की ओर निकल पड़ा। जलप्रलय बनकर आई बाढ़ इतनी भयानक थी कि उसने केदारनाथ मंदिर के आसपास स्थित सभी होटलों, धर्मशालाओं व लाॅजों व अन्य सभी इमारतों को नेस्तनाबूद कर दिया। बादल फटने के कारण प्रलय बनकर बरसा पानी अपने साथ बड़े-बड़े बोल्डरों को साथ लेकर आया जिसने अपने रास्ते में आने वाली हर चीज के अस्तित्व को ही मीटा दिया।

Bheem shila, पंच केदार | Panch Kedar
केदारनाथ मंदिर के ठीक पीछे आकर रूका भीम शिला

तभी चौंकाने वाली घटना घटती है और एक बड़ी सी पत्थर की शिला केदारनाथ मंदिर के ठीक पीछे आकर खड़ी हो जाती है मानो किसी ने हाथ से उठाकर एकदम सही जगह पर रखा हो। परन्तु आश्चर्य की बात यह थी इतनी भीषण जलप्रय में मंदिर के ही आकार की यह विशाल शिला जिसका आकार ठीक मंदिर की चौड़ाई जितना है अचानक कहाँ से आई? और इतनी ऊँचाई से लुढकते हुए आकर मंदिर की ठीक पीछे आकर ही कैसे रूक गई?

केदारनाथ मंदिर का कवच बनकर आई इस विशाल शिला को 2013 की त्रासदी के बाद भीम शिला के नाम से जाना जाने लगा। पहली दफा दुनिया ने महादेव शिव का इतना बड़ा चमत्कार अपनी आँखों के सामने देखा था।

Bheem shila, पंच केदार | Panch Kedar
दिव्य भीम शिला

मंदिर समिति के सदस्य इस बात से पूरी तरह सहमत हैं कि अगर ये शिला नहीं आयी होती तो मंदिर को बर्बादी से बचा पाना नामुमकिन था। स्वयं आर्कियोलॉजिकल विभाग भी इसके पीछे किसी चमत्कार से इंकार नहीं करता। आखिर इस दिव्य शिला का आपदा के दौरान कैसे प्राकाट्य हुआ, इसे अभी भी नहीं जाना जा सका है। हां, आस्थावान ये जरूर मानते हैं कि स्वयं भगवान शिव की प्रेरणा से ये शिला वहां स्थापित हुई ताकि मंदिर की महिमा पूर्ववत संरक्षित रहे।

यात्रा करने का सही समय | Right time to visit Kedarnath Temple

केदारनाथ यात्रा का सही समय मई माह से अक्टूबर माह तक माना जाता है। अत्यधिक बर्फबारी के कारण अप्रैल माह तक रास्तों में काफी बर्फ जमी होती है जिससे चढ़ाई चढ़ने में काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है और साथ ठंड भी एक मुद्दा बन जाती है।

2022 में कब खुलेंगे केदारनाथ धाम के कपाट

इस वर्ष केदारनाथ नाम के कपाट 6 मई 2022 को खुलेगें। प्रातः 6 बजकर 25 मिनट पर भक्तों के लिए भगवान केदारनाथ के कपाट खोल दिए जाऐगें। श्री केदारनाथ धाम उत्तराखंड में स्थित चार धामों में से मुख्य धाम है। हर वर्ष देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु एवं शिव भक्त बाबा केदार के दर्शन करने उत्तराखंड स्थित केदारनाथ धाम पहुंचते हैं। ऊँची बर्फीले हिमालय की गोद में बसे बाबा केदार का धाम धरती पर स्वर्ग से कम नहीं है।

केदारनाथ में यात्रियों के रुकने की व्यवस्था

केदारनाथ में यात्रियों की रूकने की व्यव्स्था रहती है। गढ़वाल मण्डल विकास निगम के गेस्टहाउस के साथ-साथ वहाँ लाॅज इत्यादि आसानी से मिल जाते हैं। धर्मशालाओं मे भी रूकने की व्यवस्था हो जाती है।

मुख्य शहरों से दूरी

दिल्ली से केदारनाथ की दूरी - 452 किलोमीटर
देहरादून से केदारनाथ की दूरी - 254 Km
हरिद्वार से केदारनाथ की दूरी - 239 Km
ऋषिकेश से केदारनाथ की दूरी - 216 Km
चण्डीगढ़ से केदारनाथ की दूरी - 443 Km

केदारनाथ धाम कैसे पहुँचे | How to reach Kedarnath Temple

पंच केदारों में प्रथम केदार बाबा केदारनाथ के धाम आप हवाई मार्ग, सड़क मार्ग व रेल मार्ग से यात्रा कर आसानी से पहुँच सकते हैं। तीनों ही माध्यम से आप किस तरह सुगमता से केदारनाथ पहुँच सकते हैं, हमने नीचे विस्तार से बताया है। तो आइए जानते हैं कैसे पहुँचे केदारनाथ धाम।

सड़क मार्ग से | By Road 

अगर आप केदारनाथ धाम की यात्रा सड़क मार्ग से बस या अपने वक्तिगत वाहन से से करना चाहते हैं तो आपको सबसे पहले बस से ऋषिकेश, हरिद्वार या देहरादून पहुँचना होगा। ऋषिकेश से केदारनाथ की दूरी लगभग 216 किमी है। यहाँ से आपको सोनप्रयाग के लिए सीधे बस सेवा उपलब्ध हो जाऐगी। सोनप्रयाग से गौरीकुंड तक मैक्स व टैक्सी सेवा लेकर आप गौरीकुंड तक पहुँच सकते हैं जहाँ से फिर आपको लगभग 19 किमी पैदल मार्ग तय करके केदारनाथ धाम तक पहुँचना होता है।

रेल मार्ग से | By Train 

अगर आप केदारनाथ धाम की यात्रा रेल मार्ग से करना चाहते हैं तो आप जहाँ से आना चाहते हैं वहाँ से ऋषिकेश, हरिद्वार या देहरादून तक रेल से आ सकते हैं। जहाँ से आपको आगे का सफर बस से करना होगा।

हवाई मार्ग से | By Air 

अगर आप हवाई यात्रा करके केदारनाथ धाम पहुँचना चाहते हैं तो केदारनाथ धाम से निकटतम हवाई अड्डा जौलीग्रांट (देहरादून) है। जो कि केदारनाथ से लगभग 254 किमी की दूरी पर स्थित है। जौलीग्रांट हवाई अड्डा से आप रिक्शा या बस से भनियावाला या ड़ोईवाला पहुँच सकते हैं जहाँ से आपको ऋषिकेश जाने के लिए सीधे बस की सुविधा मिल जाएगी और ऋषिकेश से केदारनाथ धाम आप टैक्सी या बस की सुविधा लेकर आप आसानी से पहुँच हैं।

सीधे केदारनाथ तक हेलिकॉप्टर सेवा

आप केदारनाथ धाम तक पैदल न चलकर हेलिकॉप्टर की सेवा लेकर आसानी से पहुँच सकते हैं। इस वर्ष 4 अप्रैल 2022 से केदारनाथ हेली सेवा के लिए ऑनलाइन बुकिंग शुरू हो चुकी है। देश और दुनिया से आने वाले तीर्थ श्रद्धालु heliservices.uk.gov.in वेबसाइट पर जाकर टिकट की बुकिंग कर सकते हैं।

2. मद्यमहेश्वर | Madhyamaheswar

Madhyamaheswar,पंच केदार | Panch Kedar

मद्यमहेश्वर कहाँ स्थित है?

पंच केदार (Panch Kedar) में मद्यमहेश्वर द्वितीय केदार है। मध्यमहेश्वर भारत के उत्तराखण्ड में गढ़वाल हिमालय के गौंडर गांव में स्थित भगवान शिव को समर्पित एक हिंदू मंदिर है। 3,497 मीटर (11,473.1 फीट) की ऊँचाई पर स्थित, यह पंच केदार तीर्थ यात्रा सर्किट में से एक है, जिसमें गढ़वाल क्षेत्र में पांच शिव मंदिर शामिल हैं। सर्किट के अन्य मंदिरों में शामिल हैं: मध्यमहेश्वर से पहले केदारनाथ, तुंगनाथ और रुद्रनाथ और मध्यमहेश्वर के बाद कल्पेश्वर के दर्शन किए जाने हैं। शिव के मध्य (मध्य) या पेट के हिस्से या नाभि की पूजा इस मंदिर में की जाती है, माना जाता है कि इसे पाण्डवों द्वारा बनाया गया था।

जिस राज्य में स्थित है - उत्तराखण्ड
जिस जिले में स्थित है - रूद्रप्रयाग
मद्यमहेश्वर मंदिर की समद्रतल से ऊँचाई - 3,497 मीटर (11,473.1 फीट)
पंच केदारों में - द्वितीय केदार

पंच केदारों में द्वितीय केदार है मद्यमहेश्वर

Madhyamaheswar, पंच केदार | Panch Kedar

मद्महेश्वर पंच केदार (Panch Kedar) के अंतर्गत द्वितीय केदार माना जाता है। भगवान शिव के मध्य भाग (नाभि स्थल) का विग्रह रमणीय स्थल मध्यमेश्वर में है। यहाँ पर शंकर का भव्य मंदिर है जहाँ नाभि स्थल की विशेष पूजा होती है। यह निर्जन घने जंगलों एवं पर्वत शिखरों से आवृत एक रमणीक तीर्थ है।

यहाँ पर रात्रि-पूजा विशेष आकर्षक एवं दर्शनीय है। पाण्डव शैली के इससे मंदिर के आसपास वर्षा ऋतु में ब्रह्म कमल खिलते हैं।

मद्यमहेश्वर मंदिर का पौराणिक इतिहास

Madhyamaheswar, पंच केदार | Panch Kedar

गढ़वाल क्षेत्र, शिव और पंच केदार (Panch Kedar) मंदिरों के निर्माण से संबंधित कई लोक कथाएं सुनाई जाती हैं। पंच केदार के बारे में एक लोक कथा हिंदू महाकाव्य महाभारत के नायक पाण्डवों से संबंधित है। पांडवों ने महाकाव्य कुरुक्षेत्र युद्ध में अपने चचेरे भाइयों – कौरवों को हराया और मार डाला। वे युद्ध के दौरान भाईचारे (गोत्र हत्या) और ब्राह्मणहत्या (ब्राह्मणों की हत्या – पुजारी वर्ग) के पापों का प्रायश्चित करना चाहते थे। इस प्रकार, उन्होंने अपने राज्य की बागडोर अपने परिजनों को सौंप दी और शिव की तलाश में और उनका आशीर्वाद लेने के लिए निकल पड़े।

सबसे पहले, वे वाराणसी (काशी) के पवित्र शहर गए, जिसे शिव का पसंदीदा शहर माना जाता था और अपने काशी विश्वनाथ मंदिर के लिए जाना जाता था, लेकिन शिव उनसे बचना चाहते थे क्योंकि वह कुरुक्षेत्र युद्ध में मृत्यु और बेईमानी से बहुत नाराज थे और इसलिए, पांडवों की प्रार्थनाओं के प्रति असंवेदनशील थे। इसलिए, उन्होंने एक बैल (नंदी) का रूप धारण किया और गढ़वाल क्षेत्र में छिप गए।

वाराणसी में शिव को न पाकर पांडव गढ़वाल हिमालय चले गए। पाँच पाण्डव भाइयों में से भीम पहाड़ों पर खड़े होकर शिव की तलाश करने लगे। उन्होंने गुप्तकाशी (“छिपी काशी” – शिव के छिपने के कार्य से प्राप्त नाम) के पास एक बैल को चरते हुए देखा। भीम ने तुरंत बैल को शिव के रूप में पहचान लिया। भीम ने बैल को उसकी पूंछ और पिछले पैरों से पकड़ लिया। लेकिन बैल से बने शिव जमीन में गायब हो गए, बाद में केदारनाथ में कूबड़ उठा, तुंगनाथ में हाथ, रुद्रनाथ में चेहरा, मध्यमहेश्वर में नाभि व बाल कल्पेश्वर में दिखाई देने लगे।

पांडवों ने पांच अलग-अलग रूपों में इस पुन: प्रकट होने से प्रसन्न होकर, शिव की पूजा की और पूजा के लिए पांच स्थानों पर मंदिरों का निर्माण किया। इस प्रकार पांडव अपने पापों से मुक्त हो गए। कहानी का एक रूप भीम को न केवल बैल को पकड़ने, बल्कि उसे गायब होने से रोकने का श्रेय देता है। नतीजतन, बैल पांच भागों में टूट गया और हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र के केदारखण्ड में पांच स्थानों पर दिखाई दिया।

पंच केदार (Panch Kedar) मंदिरों के निर्माण के बाद, पांडवों ने मोक्ष के लिए केदारनाथ में ध्यान लगाया, यज्ञ (अग्नि यज्ञ) किया और फिर महापंथ (जिसे स्वर्गारोहिणी भी कहा जाता है) के माध्यम से स्वर्ग या मोक्ष प्राप्त किया। पंच केदार मंदिरों का निर्माण उत्तर-भारतीय हिमालयी मंदिर वास्तुकला में किया गया है, जिसमें केदारनाथ, तुंगनाथ और मध्यमहेश्वर मंदिर समान दिखते हैं।

मध्यमहेश्वर मंदिर की निर्माण शैली व भौगोलिक परिदृश्य

उत्तर-भारतीय हिमालयी शैली की वास्तुकला में मंदिर, एक उच्च पर्वतमाला के ठीक नीचे एक हरे-भरे घास के मैदान में स्थित है। पुराना, ‘वृद्ध-मदमहेश्वर’, मंदिर रिज पर एक छोटा मंदिर है, जो चौखम्बा पर्वत चोटियों के ठीक नीचे सीधे दिखता है। वर्तमान मंदिर में, गर्भगृह में काले पत्थर से बना एक नाभि के आकार का शिव-लिंग स्थापित है।

दो अन्य छोटे मंदिर हैं, एक शिव की पत्नी पार्वती के लिए और दूसरा अर्धनारीश्वर को समर्पित, एक अर्ध-शिव आधा-पार्वती छवि वाला मंदिर है। माना जाता है कि दूसरे पांडव भाई भीम ने इस मंदिर का निर्माण किया था और यहाँ शिव की पूजा की थी। मुख्य मंदिर के दाईं ओर एक छोटा मंदिर है जहाँ गर्भगृह में संगमरमर से बनी विद्या की देवी सरस्वती की प्रतिमा स्थापित है।

मंदिर चौखंबा (शाब्दिक अर्थ चार स्तंभ या चोटियाँ), नील कंठ और केदारनाथ उच्च हिमालयी पहाड़ी श्रृंखलाओं में बर्फ की चोटियों से घिरी एक हरी घाटी में है। केदार पर्वत, जिसे केदार मैसिफ कहा जाता है, कई हिमनदों के साथ पहाड़ के कई खूबसूरत दृश्यों का निर्माण करता है। जिसमें मंदाकिनी नदी का स्रोत भी शामिल है। इस क्षेत्र में समृद्ध वनस्पतियाँ और जीव हैं, विशेष रूप से केदारनाथ वन्य जीवन अभयारण्य में हिमालयी मोनाल तीतर और हिमालयी कस्तूरी मृग (स्थानीय रूप से कस्तूरी हिरण कहा जाता है) की लुप्तप्राय प्रजातियाँ हैं।

मध्यमहेश्वर मंदिर में पूजा-पाठ अनुष्ठान का समय

Madhyamaheswar, पंच केदार | Panch Kedar

मंदिर परिसर के पानी को इतना पवित्र माना जाता है कि कुछ बूंदों को भी स्नान के लिए पर्याप्त माना जाता है। इस मंदिर में पूजा सर्दियों के बाद गर्मियों के महीनों की शुरुआत से एक निर्दिष्ट समय अवधि के साथ शुरू होती है और सर्दियों के मौसम की शुरुआत से अक्टूबर/नवंबर तक चलती है। शीत ऋतु में मंदिर परिसर में भारी बर्फ की स्थिति के दौरान, भगवान की प्रतीकात्मक मूर्ति को धार्मिक औपचारिकताओं के साथ निरंतर पूजा के लिए ऊखीमठ में स्थानांतरित कर दिया जाता है।

मध्यमहेश्वर मंदिर के पुजारी अथवा रावल

इस मंदिर के पुजारी, राज्य के कई अन्य मंदिरों की तरह, दक्षिण भारत से हैं और इस विशेष मंदिर में उन्हें लिंगायत जाति के जंगम कहा जाता है जो कर्नाटक राज्य के मैसूर से आते हैं। राज्य के बाहर से पुजारियों का यह समावेश देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में सांस्कृतिक संचार को बढ़ाता है, जिसमें भाषा कोई बाधा नहीं बनती है। यह पंचस्थली (पांच स्थान) सिद्धांत के रूप में वर्गीकृत शास्त्री (पाठ) महत्व के एक महत्वपूर्ण पवित्र तीर्थस्थलों में से एक है।

बूढ़ा मध्यमहेश्वर मंदिर

पंच केदार | Panch Kedar

मध्यमहेश्वर मुख्य मंदिर से लगभग 2 किमी ऊपर की ओर एक छोटा मंदिर है जिसे बूढ़ा मध्यमहेश्वर कहा जाता है। यहाँ पहुँचने के लिए बड़ी घाटियों से होकर 2 किलोमीटर की चढ़ाई करनी होती है और फिर एक छोटी झील में पहुँचना होता है, जहाँ हिमालय की एक पूरी मनोरम श्रृंखला चौखम्बा, केदारनाथ, नीलकंठ, त्रिशूल, कामेट, पंचाचुली, आदि शामिल हैं का शानदार नजारा दिखाई देता है।

कब करें द्वितीय केदार मध्यमहेश्वर की यात्रा

मंदिर जाने का सबसे अच्छा समय अप्रैल से सितंबर तक है। कठोर मौसम की स्थिति से बचने के लिए अक्टूबर के महीने से पहले यात्रा करने की सलाह दी जाती है।

मुख्य शहरों से दूरी

दिल्ली से मध्यमहेश्वर की दूरी - 370 km
देहरादून से मध्यमहेश्वर की दूरी - 250 km
हरिद्वार से मध्यमहेश्वर की दूरी - 230 km
ऋषिकेश से मध्यमहेश्वर की दूरी - 200 km
चण्डीगढ़ से मध्यमहेश्वर की दूरी - 416 km

मद्यमहेश्वर मंदिर कैसे पहुँचे | How to reach Maheswar temple

सड़क मार्ग से | By Road

पंच केदारों में द्वितीय केदार श्री मद्यमहेश्वर धाम मुख्यता यात्रीगण सड़क मार्ग से ही पहुँचते हैं। सड़क मार्ग से मध्यमहेश्वर जाने के लिये सर्वप्रथम आपको हरिद्वार या ऋषिकेश से उखीमठ तक बस या अपने निजी वाहन से पहुँचना होगा। उसके बाद आपको उखीमठ से रांसी गाँव तक जाने के लिए टैक्सी किराये पर लेनी होगी। आप कैब, टैक्सी और अपने निजी गाड़ी के सहायता से भी रांसी तक बहुत आसानी से पहुँच सकते है। उखीमठ पब्लिक ट्रांसपोर्ट सेवाओं से बहुत अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। उखीमठ के लिए हरिद्वार और ऋषिकेश से नियमित रूप से बस सेवा उपलब्ध रहती है। रांसी के बाद मद्यमहेश्वर के लिये आपको 16 किलोमीटर का पैदल ट्रेक करना होगा।

रेलमार्ग से | By Train

यदि आप द्वितीय केदार मद्यमहेश्वर की यात्रा रेल मार्ग से करना चाहते हैं तो आप जहाँ से आना चाहते हैं वहाँ से ऋषिकेश, हरिद्वार या देहरादून तक रेल से आ सकते हैं। देश के प्रमुख शहरों से यह तीनों रेलवे-स्टेशन, रेल मार्ग द्वारा बहुत अच्छी तरह से जुड़े हुए हैं। हरिद्वार पहुँच कर आप बस और टैक्सी की सहायता से उखीमठ तक पहुँच सकते है।

हवाई मार्ग से | By Air 

यदि आप द्वितीय केदार मद्यमहेश्वर की यात्रा हवाई मार्ग से करने के इच्छुक हैं तो मध्यमहेश्वर के सबसे नजदीकी हवाई अड्डा देहरादून का जॉली ग्रांट हवाई अड्डा है। देहरादून से मध्यमहेश्वर की दूरी मात्र 240 किलोमीटर है। देहरादून देश के प्रमुख हवाई अड्डों से बहुत अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है।

देहरादून पहुँच कर आप बस और टैक्सी की सहायता से बहुत आसानी से उखीमठ तक पहुँच सकते है। उखीमठ पहुँच कर आपको रांसी के लिए टैक्सी लेनी होगी और रांसी पहुँच कर आप मध्यमहेश्वर के लिए अपना पैदल ट्रेक शुरू कर सकते है।

3. तुंगनाथ | Tungnath

Tungnath, पंच केदार | Panch Kedar

पंच केदारों में तृतीय केदार है तुंगनाथ

पंच केदार (Panch Kedar) में तुंगनाथ तृतीय केदार है। उत्तराखण्ड राज्य के रुद्रप्रयाग जिलें में समुद्रतल से लगभग 3460 मीटर की ऊँचाई पर स्थित तुंगनाथ मंदिर, पंच केदारों में तृतीय केदार है। यूँ तो देवभूमि उत्तराखण्ड का समस्त भू-भाग देव स्थलों से सुसज्जित है, परन्तु इन सबमें शिव के मुख्य पाँच तीर्थों में जो केवल उत्तराखण्ड में स्थित हैं, तुंगनाथ तृतीय स्थान पर आता है। तुंगनाथ का पौराणिक इतिहास लगभग-लगभग वैसा ही है जो कि हमने केदारनाथ के बारे में पढ़ा था।

महाभारत युद्ध के पश्चात जब पाण्डव गोत्र हत्या से मुक्त होने हेतु केदारनाथ धाम शिव दर्शन के लिए पहुँचे तो भगवान शिव पाण्डवों से रुष्ट होकर व पाण्डवों का दर्शन न देने की इच्छा से धरती में समाने लगे तो महाबली भीम ने महादेव के पृष्ठ भाग को पकड़ लिया जो कि केदारनाथ में पूजा जाता है। अन्य भाग भिन्न-भिन्न स्थानों पर प्रकट हुए। जैसे मद्यमहेश्वर में नाभि, केदारनाथ में पृष्ठ भाग, कल्पेश्वर में जटा, रुद्रनाथ में रौद्र मुख तथा तुंगनाथ भुजा रूप में महादेव शिव प्रकट हुए।

अतः यहीं पर भगवान शिव की भुजाओं का विग्रह हुआ था। इस मनोरम तृतीय केदार तुंगनाथ मंदिर में भुजाओं के विशेष पूजा होती है क्योंकि इस स्थान पर शिव भुजा अथवा बाँह के रूप में विद्यमान है।

जिस राज्य में स्थित है - उत्तराखण्ड
जिस जिले में स्थित है - रूद्रप्रयाग
तुंगनाथ मंदिर की समद्रतल से ऊँचाई - 3460 मीटर
पंच केदारों में - तृतीय केदार

तुंगनाथ, विश्व का सबसे ऊँचाई पर स्थित शिव मंदिर

Tungnath, पंच केदार | Panch Kedar

रुद्रप्रयाग जिले में स्थित भगवान शिव का तृतीय धाम तुंगनाथ, भगवान शिव का दुनिया में सबसे ऊँचाई पर स्थित शिव मंदिर है। रुद्रप्रयाग – उखीमठ – चोपता – मण्डल – गोपेश्वर – चमोली मोटर मार्ग पर चलने पर चोपता नामक स्थान से लगभग 4 किलोमीटर का चढ़ाई युक्त पैदल मार्ग तय कर तुंगनाथ मंदिर पहुँचना होता है। जहाँ मंदिर के भव्य दर्शन होते हैं।

हिमालय वासी भगवान शिव के पाँच धामों में तृतीय धाम तुंगनाथ, समुसमुद्रतल से लगभग 3460 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इस ऊँचाई पर अन्य कोई शिव मंदिर दुनिया में स्थित नहीं है। अतः तुंगनाथ को शिवजी के सर्वोच्च ऊँचाई पर स्थित मंदिरों में प्रथम होने का गौरव प्राप्त है। शीतकाल में मंदिर के कपाट बंद हो जाने पर तुंगनाथ की पूजा मक्कूमठ में होती है। कपाट खुलने के अवसर पर केदारनाथ की डोली की भांति तुंगनाथ की डोली भी तुंगनाथ के लिए प्रस्थान करती है।

तुंगनाथ मंदिर के आसपास मुख्य दर्शनीय स्थल

चोपता | Chopta

Chopta, पंच केदार | Panch Kedar

वर्तमान समय में पर्यटकों की उत्तराखण्ड में पहला पसंदीदा पर्यटन स्थल अगर कोई है तो वह चोपता है इस बात में कोई दोहराए नहीं रहा! शायद ही कोई प्रकृति प्रेमी होगा जिसने धरती के इस स्वर्ग के बारे में नहीं सुना होगा।

अलकनंदा घाटी से होते हुए जहाँ चार धामों में एक श्री बदरीनाथ धाम तक पहुँचाना जाता है। वहीं दूसरी ओर मंदाकिनी घाटी से होकर द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक श्री केदारनाथ धाम तक पहुँचा जाता है। इन दोनों घाटियों को जोड़ते एक बेहद खूबसूरत सैरगाह स्थित है जिसका नाम चोपता है। चोपता अपनी मनोहर प्राकृतिक सौंदर्य में अतुल्य एंव अवर्णनीय है।

समुद्रतल से लगभग 2600 मीटर की ऊँचाई में स्थित चोपता में हर ओर हरियाली और बर्फीला सौंदर्य, पल-पल स्वच्छंद वातावरण में आनंदित करता है। यहाँ यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि चोपता जितना खूबसूरत है उससे कई ज्यादा खूबसूरत है चोपता पहुँचने वाला रास्ता। हरे-भरे बुग्यालों एवं बांझ-बुराँस के पेड़ों से लदे रास्तों के बीच से होकर गुजरना पर्यटकों को आनंद से भर देता है एवं उनकी सारी थकान, चिंता व तनाव सभी को दूर कर देता है।

संपूर्ण मार्ग घनी वन संपदा, वन्य जीवन और हरियाली नजारों से रोमांचित करता है। ऐसा लगता है जैसे स्फूर्ति, ताजगी, उत्साह, उल्लास और आनंद जैसी अनुभूतियां वातावरण में तैर रही हैं। मंडल घाटी में छोटे-छोटे गांव और खेतों और फल-फूलों से लदे छोटे-छोटे बगीचे आकर्षक हैं। मंडल से चोपता और चोपता से उखीमठ तक हिमालई नजारों में बादलों का तैरना समय-समय पर बादलों से बनते-बिगड़ते विभिन्न रूपों के साथ धूप-छाया का खेल व वर्षा की फुहारों के दृश्यवाली प्रकृति की नृत्यशाला की कल्पना को साकार करती है।

चोपता में सुंदर हरे-भरे घास के ढलान हैं। चोपता के समीप ही दुगलबिट्टा तक यह सौंदर्य पसरा है तो चोपता से लगभग 3700 मीटर से अधिक ऊंचाई, तुंगनाथ-चंद्रशिला तक, यह हरा भरा सौंदर्य आसमान को चूमता प्रतीत होता है।

चोपता तुंगनाथ का संपूर्ण क्षेत्र पशु-पक्षियों, तितलियों की स्वच्छंद सैरगाह है। झिलमिलाते प्रकृति के सौंदर्य में वन्यजीवों के स्वर, पक्षियों-तितलियों और भौंरों की चंचलता, जलधाराओं और झरनों की शीतलता के बीच बादलों की उन्मुक्तता का एहसास चोपता में पर्यटक सही कर सकते हैं। चोपता उन स्थलों में से एक है जहाँ पहुँचकर पर्यटक खुद-ब-खुद सब कुछ भूलकर प्रकृति के सौंदर्य में खो जाना चाहता है।

रावण शिला | चंद्ररशिला

चंद्रशिला के बारे में मान्यता है कि रावण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए यहाँ कठोर तप किया था। तुंगनाथ-चंद्रशिला से हिमालय दर्शन की भव्यता सम्मोहित करती है। यह स्थान आकाश कामिनी नदी का उद्गम भी है जो अंततः काकड़ागाड में मंदाकिनी नदी में समाहित हो जाती है। तुंगनाथ की चोटी तीन धाराओं का स्रोत है, जिनसे अक्षकामिनी नदी बनती है।

Chandrashila, Panch kedar

देवरियाताल | Deoria Tal Lake

Deoria Tal Lake, पंच केदार | Panch Kedar

देवरियाताल कहाँ स्थित है?

मध्य हिमालयी क्षेत्र की मखमली घास के मैदानी ढालों पर प्रकृति की अनुपम छटा बिखेरती देवरिया ताल गढ़वाल क्षेत्र की बेहद खूबसूरत झीलों में से एक है। यह झील, उत्तराखण्ड के रूद्रप्रयाग जिले में रूद्रप्रयाग शहर से मात्र 56 किलोमीटर की दूरी पर ऊखीमठ के छोटे से पहाड़ी गाँव सारी से लगभग तीन किलोमीटर की चढ़ाई पर समुद्रतल से 3,680 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है।

देवरियाताल का पौराणिक इतिहास

देव भूमि उत्तराखंड की इस झील से कुछ पौराणिक साक्ष्य जुड़े हुए हैं। ऐसी किंवदंती है कि अनुसार देवरियाताल नामक इस झील में देवतागण स्नान करते थे। अतः पुराणों में इसे ‘इंद्र सरोवर’ के नाम से उल्लेखित किया गया है। इस झील की स्थिती ही इसे पवित्र एंव लौकिक रूप प्रदान करती है। यही कारण है कि सनातन धर्म के पौराणिक गर्थों में हमें इस झील के इतिहास के दर्शन होते ही रहते हैं। देव स्नान के कारण भी शायद इसका नाम देवरियाताल ताल पड़ा हो।

देवरियाताल के महाभारत से जुड़े तथ्य

Deoria Tal Lake, पंच केदार | Panch Kedar

महाभारत की प्रसिद्ध कथा के अनुसार जब कौरवों ने पाण्डवों को द्यूत में हरा दिया तो उन्हें 13 वर्ष का वनवास प्रदान किया गया था। ऐसी कथा है कि इसी 13 वर्ष के वनवास काल में देवरिया ताल पर ही यक्ष ने पाण्डवों से पाँच प्रश्न पूछे थे। उसी कथा का संबंध इस झील से है।

देवरिया ताल के निर्माण के लिए भी पांडवों का योगदान बताया गया हैं। एक अलग मान्यता के अनुसार, जब पांडवों को प्यास लगी थी तब भीम ने अपनी शक्ति से देवरिया ताल झील का निर्माण किया था जिससे सभी पाण्डवों की प्यास बुझी थी। इसी के साथ यक्ष भी इसी झील में निवास करते हैं, ऐसी मान्यता भी प्रचलित है।

देवरिया ताल की खूबसूरती

Deoria Tal Lake, पंच केदार | Panch Kedar

हिमालय की मनमोहक कंदराओं में बर्फीले चोटियों की ओट में स्थित यहा छोटी से परंतु अति मनमोहक झील की खूबसूरती बयाँ करना किसी भी लेखक के लिए काफी मुश्किल भरा है। यह कुछ ऐसा एहसास है जिसे लिखा नहीं जा सकता अपितु सामने से वहाँ खुद होकर ही महसूस किया जा सकता है।

इस झील की लंबाई 1.5 किलोमीटर तथा चौड़ाई 0.5 किलोमीटर है। जब इस ताल में हिमालय की चौखम्बा चोटियों का दृश्य इसके ठहरे हुए शांत व साफ पानी पर दर्पण की भांति प्रतिबिंबित होता है तो वह दृश्य देखने लायक व अविस्मरणीय होता है। मन कुछ पल शांत होकर वहीं बैठने को करता है। यही कारण है कि प्रकृति प्रेमी घुमक्कड़ पर्यटक इस अनुभूति को लेने खिंचे चले आते हैं इस आलौकिक झील की तरफ।

देवरियाताल के निकट ही पंचकेदारों में प्रसिद्ध तृतीय केदार तुंगनाथ तीर्थ स्थित है। चारों ओर बांझ-बुराँस के वृक्षों से घिरे इस ताल के आसपास अगस्त-सितंबर सितंबर में अनेक प्रकार के फूल खिलते हैं और यह जगह धरती पर स्वर्ग का रूप धारण कर लेती है।

पक्षी प्रेमी पर्यटकों के लिए यह एक शानदार सैरगाह है। बांझ-बुराँस के वृक्ष में रहने वाले मध्य एवं उच्च हिमालय पक्षी यहाँ आसानी से नजर आ जाते हैं जिन्हें देखना एवं सुनना यादगार पलों में शामिल हो जाता है।

मुख्य शहरों से दूरी

दिल्ली से तुंगनाथ की दूरी - 381 km
देहरादून से तुंगनाथ की दूरी - 244 km
हरिद्वार से तुंगनाथ की दूरी - 229 km
ऋषिकेश से तुंगनाथ की दूरी - 207 km
चण्डीगढ़ से तुंगनाथ की दूरी - 443 km

तुंगनाथ मंदिर कैसे पहुँचे | How to reach Tungnath temple

सड़क मार्ग से | By Road

विश्व के सबसे ऊँचे एवं सुप्रसिद्ध पंच केदारओं में तृतीय केदार बाबा तुंगनाथ की यात्रा आप मई से नवंबर तक कर सकते हैं। प्रकृति प्रेमी व महादेव के भक्त तुंगनाथ के कपाट बंद होने के बावजूद भी यहाँ आना पसंद करते हैं। परंतु सर्दियों में अत्यधिक बर्फ होने के कारण से यहाँ वाहन की यात्रा कम और पैदल यात्रा अधिक होती है। जनवरी व फरवरी के महीने में भी यहाँ बर्फ का मजा लेने जाया जा सकता है।

सड़क मार्ग से आप तुंगनाथ मंदिर निम्नलिखित दो रास्तों से पहुँच सकते है-

ऋषिकेश से गोपेश्वर होकर | Via Rishikesh to Gopeshwar

ऋषिकेश-गोपेश्वर मार्ग से तुंगनाथ पहुँचने के लिए आपको सबसे पहले आपको ऋषिकेश से गोपेश्वर पहुँचना होता है जिसकी दूरी 208 किलोमीटर है। गोपेश्वर पहुँचने के बाद आपको वहाँ से चोपता के जाना होता है जो की 40 किलोमीटर और आगे है और सड़क मार्ग से जुड़ा है। चोपता पहुँचने के बाद आप 6 किमी का पैदल ट्रैक करके तुंगनाथ मंदिर आसानी से पहुँच सकते हैं।

ऋषिकेश से ऊखीमठ होकर | Via Rishikesh to Ukhimath

ऋषिकेश-उखीमठ मार्ग से तुंगनाथ पहुँचने के लिए आपको ऋषिकेश से उखीमठ तक यात्रा करनी होती है। ऋषिकेश से उखीमठ की दूरी 180 किमी है। आप यहाँ तक अपने वाहन या बस आदि से आसानी से पहुँच सकते हैं। उखीमठ पहुँचने पर आपको आगे 24 किमी पर स्थित चोपता पहुँचना होता है जो कि सड़क से जुड़ा मार्ग है।

यातायात सुविधा

ऋषिकेश से गोपेश्वर और ऊखीमठ के लिए बस सेवा उपलब्ध है। इन दोनों स्थानों से चोपता के लिए बस सेवा के अलावा टैक्सी और जीप भी बुक कराई जा सकती है।

4. रूद्रनाथ | Rudranath

Rudranath, पंच केदार | Panch Kedar
जिस राज्य में स्थित है - उत्तराखण्ड
जिस जिले में स्थित है - चमोली
रूद्रनाथ मंदिर की समद्रतल से ऊँचाई - 3,600 मीटर
पंच केदारों में - चतुर्थ केदार

कहाँ स्थित है चतुर्थ केदार ‘रूद्रनाथ’

पंच केदार (Panch Kedar) में रूद्रनाथ चतुर्थ केदार है। चतुर्थ केदार, देवभूमि उत्तराखण्ड के चमोली जनपद में स्थित है। पंचकेदारों में सम्मिलित यह शिव मंदिर समुद्रतल से 2290 मीटर की ऊँचाई पर प्रकृति के सौंदर्य से भरपूर खूबसूरत वादियों में स्थित है। चमोली जनपद के मुख्यालय गोपेश्वर से लगभग 4 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गंगोल गांव से रुद्रनाथ मंदिर पहुंचने के लिए 18 किलोमीटर का चढ़ाई उसको पैदल मार्ग तय करना पड़ता है।

समुद्रतल से 2290 मीटर की ऊंचाई पर स्थित रुद्रनाथ मंदिर भव्य प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण है। रुद्रनाथ मंदिर में भगवान शंकर के एकानन यानि मुख की पूजा की जाती है, जबकि संपूर्ण शरीर की पूजा नेपाल की राजधानी काठमांडू के पशुपतिनाथ में की जाती है। रुद्रनाथ मंदिर के सामने से दिखाई देती नन्दा देवी और त्रिशूल की हिमाच्छादित चोटियां यहां का आकर्षण बढाती हैं।

रूद्रनाथ मंदिर का पौराणिक इतिहास

Pannar bugyal, पंच केदार | Panch Kedar

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जब महाभारत का युद्ध खत्म हुआ तो पांडव स्वयं को पित्र हत्या के पाप से ग्रसित समझने लगे। अतः वह स्वयं को पितृदोष के इस पाप से मुक्त कराना चाहते थे। इसके लिए वह केदारखण्ड क्षेत्र में आए जिसे वर्तमान में गढ़वाल क्षेत्र के नाम से जाना जाता है। परंतु भगवान शिव पाण्डवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे। अतः भगवान शिव ने स्वयं को नंदी बैल के रूप में परिवर्तित कर दिया एवं गढ़वाल क्षेत्र में छुपने का प्रयास किया। इस प्रकार भगवान शिव का नंदी स्वरूप शरीर चार अलग-अलग जगहों में प्रकट हुआ। रुद्रनाथ में भगवान शिव का मुख भाग प्रकट होने से इस क्षेत्र को रूद्रनाथ कहा जाता है।

रूद्रनाथ मंदिर अपेक्षाकृत कुछ छोटा पाषण गुफा के अंदर सुंदर ढंग से बना हुआ है जिसमें अपने नाम के अनुरूप भगवान शंकर की रूद्र स्वरूप श्यामवर्णा पत्थर की साक्षात मुख प्रतिमा स्वयं मुखलिंग है। शिव द्वारा रौद्र दृष्टि से पाण्डवों को देखने के कारण इस स्थान का नाम रुद्रनाथ पड़ा ऐसी मान्यता है।

यहीं पर शिव के मुख का विग्रह हुआ। संभवतः देश में यह अकेला अनुपम हिमानी तीर्थ है, जहाँ पर शंकर के शीश की पूजा होती है। रूद्रनाथ, चतुर्थ केदार के रूप में पित्र-तीर्थ के नाम से भी प्रसिद्ध है। रूद्रनाथ से द्रोणागिरी, चौखंबा, नंदा देवी, त्रिशूली आदि हिमानी पर्वत शिखर दिखाई देते हैं। भगवान शिव के मुख मंडल के दर्शन विश्व में केवल दो स्थानों पर ही होते हैं। चतुरानन के रूप में पशुपतिनाथ नेपाल में तथा एक एकानन के रूप में रूद्रनाथ में। निःसंदेह रूद्रनाथ प्रकृति और अध्यात्म की पूण्य-संधि है। शीतकाल में मंदिर बंद हो जाने के बाद रूद्रनाथ की पूजा गोपेश्वर मंदिर में होती है।

रूद्रनाथ मंदिर जाने का खूबसूरत मार्ग व आसपास का अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य

ऊँची-ऊँची बर्फीली हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य चमोली गढ़वाल क्षेत्र की खूबसूरत वादियों के बीच स्थित महादेव का धाम रूद्रनाथ पंच केदारों में चतुर्थ केदार है। चमोली जिले के मुख्यालय गोपेश्वर से करीब पाँच किलोमीटर दूर स्थित सागर गाँव प्रारंभ होता रूद्रनाथ का ट्रैक हरे-भरे बुग्यालों, कल-कल बहते झरनों, कुण्डों व छोटे-छोटे गाँवों की पगडंडियों से होकर गुजरना यात्रियों को मंत्रमुग्ध कर देता है।

गोपेश्वर एक आकर्षक हिल स्टेशन है जहाँ पर ऐतिहासिक गोपीनाथ मंदिर है। इस मंदिर का ऐतिहासिक लौह त्रिशूल भी आकर्षण का केंद्र है। गोपेश्वर पहुँचने वाले यात्री गोपीनाथ मंदिर और लौह त्रिशूल के दर्शन करना नहीं भूलते।

समुद्रतल से लगभग 2290 (7513 फीट) मीटर की ऊँचाई पर अल्पाइन घास के मैदानों के बीच मे स्थित रुद्रनाथ मंदिर की पैदल यात्रा मार्ग सागर गाँव से लगभग 24 किलोमीटर लम्बा है। चतुर्थ केदार रूद्रनाथ की पैदल यात्रा पंच केदार मंदिरों में सबसे लंबी और कठिन मानी जाती है। भगवान शिव का यह प्राचीन मंदिर अल्पाइन घास के मैदानों और रोडोडेंड्रोन के घने जंगलों के बीच से होकर पहुँचते हैं।

रुद्रनाथ मंदिर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर कई प्राचीन और पवित्र जल कुंड भी बने हुए है। इन जल कुंडों में चंद्र कुंड, मन कुंड, सूर्य कुंड और तारा कुंड प्रमुख है। मंदिर से हिमालय की प्रमुख पर्वतश्रृंखलाएँ भी दिखाई देती है जिनमें – हाथी पर्वत, देव स्थान, नंदा देवी, नंदा घुंटी और त्रिशूल जैसी पर्वतश्रेणियां शामिल है।

मंदिर के पास में ही वैतरणी नदी बहती है। वैतरणी नदी को बैतरणी नदी और रुद्रागंगा कह कर भी बुलाया जाता है। वैतरणी नदी में रुद्रनाथ की पत्थर से बनी हुई एक मूर्ति भी स्थापित की गई है। इस नदी को स्थानीय निवासी “मोक्ष की नदी” के नाम से भी जानते है। स्थानीय निवासियों में ऐसा विश्वास है कि मृत व्यक्ति की आत्मा इसी नदी से होते हुए दूसरी दुनिया मे पहुंचती है।

पंच केदार | Panch Kedar

कुछ और मान्यताएं भी इस नदी से जुड़ी हुई है जैसे कि अगर इस नदी में पित्रों का पिंडदान किया जाता है तो उस दान को पवित्र शहर गया में एक करोड़ रुपये के दान के बराबर मानते है। इसी वजह से भगवान रुद्रनाथ के बहुत से भक्त इसी नदी में अपने रिश्तेदारों का पिंडदान किया करते है।

सर्दियों में गोपीनाथ मंदिर में होती है चतुर्थ केदार रूद्रनाथ की पूजा

Gopinath, पंच केदार | Panch Kedar

सर्द ऋतु आने पर 7513 फीट की ऊँचाई पर स्थित चतुर्थ केदार रूद्रनाथ मंदिर बर्फ की मोटी चादर से ढक जाता है। अतः नवंबर माह से लेकर मई माह तक 6 महीने के लिए रूद्रनाथ मंदिर के कपाट यात्रियों के लिए बंद कर दिए जाते हैं। सर्दियों के मौसम में रूद्रनाथ की पालकी को गोपेश्वर में स्थित गोपीनाथ मंदिर लाया जाता है। अगले 6 महीने तक इसी गोपीनाथ मंदिर में भगवान रूद्रनाथ की पूजा होती है।

वनदेवी

6 माह की बर्फीले मौसम के बाद ग्रीष्म ऋतु के आगमन पर जब रुद्रनाथ की पालकी को दोबारा रूद्रनाथ के मुख्य मंदिर में ले जाया जाता है चतुर्थ केदार भगवान रूद्रनाथ की डोली ल्युठि बुग्याल और पानार बुग्याल के रास्ते से होते हुए पितृधर पहुँचती है। पितृधर में पितरों की पूजा करने के बाद डोली ढलबानी मैदान को पार करते हुए अंत में रुद्रनाथ मंदिर पहुंचती है। जब डोली रुद्रनाथ पहुँच जाती है तो मंदिर में सबसे पहले वनदेवी की पूजा की जाती है।

ऐसा माना जाता है की वनदेवी इस मंदिर और आसपास के क्षेत्र की रक्षा करती है। रुद्रनाथ मंदिर में एक वार्षिक मेले का आयोजन भी किया जाता है। हिन्दू पंचांग के अनुसार श्रावण पूर्णिमा (जुलाई-अगस्त) के समय यहाँ पर एक विशाल मेले का आयोजन भी किया जाता है। यह वार्षिक मेला अधिकांश रक्षा बंधन के समय आता है, इस मेले में स्थानीय निवासी बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते है।

मुख्य शहरों से दूरी

दिल्ली से रूद्रनाथ की दूरी – 402 किलोमीटर
देहरादून से रूद्रनाथ की दूरी – 264 किलोमीटर
हरिद्वार से रूद्रनाथ की दूरी – 250 किलोमीटर
ऋषिकेश से रूद्रनाथ की दूरी – 228 किलोमीटर
चण्डीगढ़ से रूद्रनाथ की दूरी – 464 किलोमीटर

रूद्रनाथ मंदिर कैसे पहुँचे | How to reach Rudranath temple

सड़क मार्ग से | By Road

पंच केदारों में आखिरी चतुर्थ केदार श्री रूद्रनाथ महादेव के मंदिर की यात्रा सड़क मार्ग से करने हेतु आपको उत्तराखण्ड के प्रमुख शहर हरिद्वार, ऋषिकेश या देहरादून पहुँचना होगा। यह तीनों ही शहर रूद्रनाथ से सबसे नजदीक हैं। इसके बाद आपको यहाँ से गोपेश्वर के लिए रवाना होना होगा। उत्तराखण्ड के इन तीनो शहरों से गोपेश्वर के लिए नियमित बस सेवा और टैक्सी सेवा उपलब्ध रहती है। रूद्रनाथ का पैदल ट्रैक गोपेश्वर से 4 किलोमीटर आगे सागर गाँव से शुरू होता है।

रेलमार्ग से | By Train

यदि आप चतुर्थ केदार रूद्रनाथ की यात्रा रेल मार्ग से करना चाहते हैं तो आप सबसे नजदीकी रेलवे-स्टेशन ऋषिकेश, हरिद्वार या देहरादून तक रेल से पहुँच सकते हैं। देश के प्रमुख शहरों से यह तीनों रेलवे-स्टेशन, रेल मार्ग द्वारा बहुत अच्छी तरह से जुड़े हुए हैं। हरिद्वार पहुँच कर आप बस और टैक्सी की सहायता से गोपेश्वर तक पहुँच सकते है। उसके बिद आगे सागर गाँव से पैदल ट्रैक कर आप रूद्रनाथ मंदिर पहुँच सकते हैं।

हवाई मार्ग से | By Air

यदि आप चतुर्थ केदार रूद्रनाथ की यात्रा हवाई मार्ग से करने के इच्छुक हैं आप हवाई यात्रा करके देहरादून तक पहुँच सकते हैं। चतुर्थ केदार रूद्रनाथ के सबसे नजदीकी हवाई अड्डा देहरादून का जॉली ग्रांट हवाई अड्डा है। देहरादून से रुद्रनाथ की दूरी मात्र 228 किलोमीटर है। देहरादून देश के प्रमुख हवाई अड्डों से बहुत अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है।

5. कल्पेश्वर | Kalpeshwar

Kalpeshwar, पंच केदार | Panch Kedar
जिस राज्य में स्थित है - उत्तराखण्ड
जिस जिले में स्थित है - चमोली
कल्पेश्वर मंदिर की समद्रतल से ऊँचाई - 2134 मीटर
पंच केदारों में - पंचम केदार

पंचम केदार ‘कल्पेश्वर’

पंच केदार (Panch Kedar) में कल्पेश्वर पंचम केदार है। उत्तराखण्ड में स्थित शिव के प्रमुख प्रसिद्ध तीर्थों पंच केदारों में पाँचवे केदार कल्पेश्वर, उर्गम घाटी में समुद्र तल से लगभग 2134 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। ऋषिकेश-बदरीनाथ मार्ग पर हेलंग नामक स्थान से अलकनंदा नदी पार कर लगभग 10 किलोमीटर की हल्की चढ़ाई वाला पैदल मार्ग तय कर पंचम केदार कल्पेश्वर तीर्थ पहुँचा जा सकता है। यहाँ पर छोटा मंदिर है। इस स्थान पर शिव की जटाओं का विग्रह होने के कारण इसका नाम जटामौलेश्वर पड़ा, किंतु यहाँ पर पाण्डवों को शिव दर्शन की कल्पना मात्र ही रहने के कारण इस स्थान का नाम कल्पनाथ या कल्पेश्वर हो गया।

कल्पेश्वर मन्दिर उत्तराखण्ड के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। यह मन्दिर इस मन्दिर में त्रिदेवों में से एक भगवान शिव के ‘जटा’ उलझे हुए बालों की पूजा की जाती है। कल्पेश्वर मन्दिर ‘पंचकेदार’ तीर्थ यात्रा में पाँचवें स्थान पर आता है। वर्ष के किसी भी समय यहाँ का दौरा किया जा सकता है। इस छोटे-से पत्थर के मन्दिर में एक गुफ़ा के माध्यम से पहुँचा जा सकता है।

गुफा स्थित पाषाण शिला में शंकर भगवान के जटाओं के अपूर्व दर्शन एवं पूजा का महात्म्य है। कल्पेश्वर में अनेक ऋषियों ने तपस्या की थी। वर्षभर खुले इस तीर्थ में भग्नावस्था में अनेक छोटे-छोटे शिवलिंग मिलते हैं। प्राकृतिक एवं रमणीक दृश्य-दर्शन के साथ-साथ आध्यात्मिक दृष्टि से भी गढ़वाल हिमालय की घाटी में स्थित पंच केदार की यात्रा का विशेष महत्व है। किंवदन्ती है कि केदारखण्ड के अंतर्गत पंच केदार की यात्रा शिवजी की 100 वर्ष की तपस्या के बराबर है। पंच केदार यात्रा धार्मिक आस्था एवं साहसिक पर्यटन का अद्भुत संगम भी है।

कल्पेश्वर मंदिर की पौराणिक कथाएँ

शिवपुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार दुर्वासा ऋषि ने इसी स्थान पर वरदान देने वाले कल्प वृक्ष के नीचे बैठकर तपस्या की थी। अतः कहते हैं तबसे यह स्थान ‘कल्पेश्वर’ कहलाया जाने लगा।

एक अन्य कथा के अनुसार असुरों से तंग आकर ऋषियों ने कल्पस्थल में भगवान की स्तुति की और भगवान शिव के दर्शन पाकर अभय वर प्राप्त किया एक अन्य कथा के अनुसार, ऋषि अरघ्या यहाँ कल्प वृके नीचे ध्यान व तप किया करते थे। यह भी माना जाता है की उन्होंने अप्सरा ऊर्वशी को इसी स्थान पर बनाया था। कल्पेश्वर मन्दिर के पुरोहित दक्षिण भारत के नंबूदिरी ब्राह्मण होते हैं। इनके बारे में कहा जाता है की ये आदिगुरू शंकराचार्य के शिष्य हैं।

महाभारत से जुड़ी कहानी

Kalpeshwar, पंच केदार | Panch Kedar

भगवान शिव के पाँचवे सुप्रसिद्ध प्राचीन धाम कल्पेश्वर की इस पावन भूमि के संदर्भ में इन सभी प्रचलित रोचक कथाओं में से जो सार्थक व वस्तुनिष्ठ मानी जाती है उसके अनुसार ऐसा माना जाता है कि यह कल्पेश्वर वह स्थान है, जहाँ महाभारत के युद्ध के पश्चात् विजयी हुए पाण्डवों ने युद्ध में मारे गए अपने संबंधियों की हत्या करने की आत्मग्लानि से पीड़ित होकर इस क्षोभ एवं पाप से मुक्ति पाने हेतु वेदव्यास से प्रायश्चित करने के विधान को जानना चाहा।

व्यास जी द्वारा इस पाप से मुक्त होने के लिए पाण्डवों को केदार जाकर भगवान शिव की पूजा एवं दर्शन करने को कहा। व्यास जी से निर्देश और उपदेश ग्रहण कर पाण्डव भगवान शिव के दर्शन हेतु यात्रा पर निकल पड़े। पाण्डव सर्वप्रथम काशी पहुँचे। शिव के आशीर्वाद की कामना की, परंतु भगवान शिव इस कार्य हेतु इच्छुक न थे।

पाण्डवों को गोत्र हत्या का दोषी मानकर शिव पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे। पाण्डव निराश होकर व्यास द्वारा निर्देशित केदार की ओर मुड़ गये। पाण्डवों को आते देख भगवान शंकर गुप्तकाशी में अन्तर्धान हो गये। उसके बाद कुछ दूर जाकर महादेव ने दर्शन न देने की इच्छा से ‘महिष’ यानि भैसें का रूप धारण किया व अन्य पशुओं के साथ विचरण करने लगे। पांडवों को इसका ज्ञान आकाशवाणी के द्वारा प्राप्त हुआ। अत: भीम ने विशाल रूप धारण कर दो पहाडों पर पैर फैला दिये, जिसके निचे से अन्य पशु तो निकल गए, पर शिव रूपी महिष पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए।

भीम बलपूर्वक भैंसे पर झपट पड़े, लेकिन बैल दलदली भूमि में अंतर्ध्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की पीठ को पकड़ लिया। भगवान शंकर की भैंसे की पीठ की आकृति पिंड रूप में केदारनाथ में पूजी जाती है। ऐसा कहा जाता है कि जब भगवान शिव भैंसे के रूप में पृथ्वी के गर्भ में अंतर्ध्यान हुए तो उनके धड़ का ऊपरी भाग काठमांडू में प्रकट हुआ, जहाँ पर ‘पशुपतिनाथ’ का मन्दिर है। शिव की भुजाएँ ‘तुंगनाथ’ में, नाभि ‘मध्यमेश्वर’ में, मुख ‘रुद्रनाथ’ में तथा जटा ‘कल्पेश्वर’ में प्रकट हुए। यह चार स्थल पंचकेदार के नाम से विख्यात हैं। इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को ‘पंचकेदार’ भी कहा जाता है।

कल्पगंगा

पाँच केदारों में पंचम केदार ‘कल्पेश्वर’ धाम, कल्पगंगा घाटी में स्थित है। प्राचीन काल में हिरण्यवती नाम से पुकारा जाने वाली कल्पगंगा नदी के दाहिने स्थान पर स्थित तट की भूमि ‘दुरबसा’ भूमि कही जाती है। इस जगह पर ध्यानबद्री का मन्दिर है। कल्पेश्वर मंदिर चट्टान के पाद में एक प्राचीन गुफा है, जिसके भीतर गर्भ में स्वयंभू शिवलिंग विराजमान है। कल्पेश्वर चट्टान दिखने में जटा जैसी प्रतीत होती है। देवग्राम के केदार मन्दिर के स्थान पर पहले कल्प वृक्ष था। कहते हैं कि यहाँ पर देवताओं के राजा इंद्र ने दुर्वासा ऋषि के शाप से मुक्ति पाने हेतु शिव-आराधना कर कल्पतरु प्राप्त किया था।

मुख्य शहरों से दूरी

दिल्ली से कल्पेश्वर की दूरी - 426 km
देहरादून से कल्पेश्वर की दूरी - 288 km
हरिद्वार से कल्पेश्वर की दूरी - 274 km
ऋषिकेश से कल्पेश्वर की दूरी - 251 km
चण्डीगढ़ से कल्पेश्वर की दूरी - 487 km

कल्पेश्वर मंदिर कैसे पहुँचे | How to reach Maheswar temple

सड़क मार्ग से | By Road

पंच केदारों में आखिरी पंचम केदार श्री कल्पेश्वर महादेव के मंदिर की यात्रा सड़क मार्ग से करने हेतु आपको उत्तराखण्ड के प्रमुख शहर हरिद्वार, ऋषिकेश या देहरादून पहुँचना होगा। यह तीनों ही शहर कल्पेश्वर से सबसे नजदीक हैं। उत्तराखंड के इन तीनो शहरों से जोशीमठ के लिए नियमित बस सेवा और टैक्सी सेवा उपलब्ध रहती है। ऋषिकेशबदरीनाथ मार्ग पर हेलंग नामक स्थान से अलकनंदा नदी पार कर लगभग 10 किलोमीटर की हल्की चढ़ाई वाला पैदल मार्ग तय कर पंचम केदार कल्पेश्वर तीर्थ पहुँचा जा सकता है।

रेलमार्ग से | By Train

यदि आप पंचम केदार कल्पेश्वर की यात्रा रेल मार्ग से करना चाहते हैं तो आप सबसे नजदीकी रेलवे-स्टेशन ऋषिकेश, हरिद्वार या देहरादून तक रेल से पहुँच सकते हैं। देश के प्रमुख शहरों से यह तीनों रेलवे-स्टेशन, रेल मार्ग द्वारा बहुत अच्छी तरह से जुड़े हुए हैं। हरिद्वार पहुँच कर आप बस और टैक्सी की सहायता से कल्पेश्वर तक पहुँच सकते है।

हवाई मार्ग से | By Air 

यदि आप पंचम केदार कल्पेश्वर की यात्रा हवाई मार्ग से करने के इच्छुक हैं आप हवाई यात्रा करके देहरादून तक पहुँच सकते हैं। कल्पेश्वर के सबसे नजदीकी हवाई अड्डा देहरादून का जॉली ग्रांट हवाई अड्डा है। देहरादून से कल्पेश्वर की दूरी मात्र 287 किलोमीटर है। देहरादून देश के प्रमुख हवाई अड्डों से बहुत अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है।

आपको यह “पंच केदार”का ब्लॉग कैसा लगा, कमेंट के माध्यम से अपनी प्रतिक्रिया देकर अवश्य बताएँ। हम इंसान हैं इसलिए त्रुटी होना व गलती करना स्वाभाविक है। अतः इस ब्लॉग में कोई गलती हो गई हो तो ह्रदय से मैं क्षमा प्रार्थी हूँ।

उत्तराखण्ड ज्ञान गंगा

इस ब्लॉग में प्रयोग किए गए केदारनाथ व मद्यमहेश्वर के खूबसूरत चित्र भुप्पी पँवार द्ववारा फिल्माए गए हैं जो कि मद्यमहेश्वर घाटी के पास ही निवास करते हैं।

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संदर्भ | Reference

कल्पेश्वर,

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