बद्रीनाथ | Badrinath Temple

Spread the love

उत्तराखण्ड के चमोली जिले में नगाधिराज हिमालय की गोद में परगना पैनखण्डा से 25 मील दक्षिण में अलकनंदा (प्राचीन नाम विष्णुगंगा) के दाहिने दिशा में तथा अत्यधिक ऊँचे नीलकंठ पर्वत शिखर के भव्य पृष्ठ पट सहित एंव अनेक हिमानी शिखरों व नर (अर्जुन) तथा नारायण (विष्णु) पर्वतों के मध्य भू-बैकुंठ धाम बद्रीनाथ, पंच बद्री (Panch Badri) में मुख्य, पुराणों में सर्वश्रेष्ठ एंव चारो धामों में से एक प्रसिद्ध और पौराणिक धाम है। बद्रीनाथ पुरी में भगवान बद्रीविशाल का भव्य मंदिर है तथा मंदिर के बाएं पार्श्व में युगों से प्रवाहित पतित वेदवती हिमानी अलकनंदा है, जो मानव की धार्मिक चेतना और उसके आध्यात्मिक स्रोत की प्रेरणादायिनी रही है।
      बद्रीनाथ मंदिर (Badrinath Temple) समुद्रतल से लगभग 3140 मीटर (10301 फीट) की ऊँचाई पर स्थित है। बद्रीनाथ मंदिर, देश की प्राचीन संस्कृति एवं भावनात्मक एकता तथा अटूट श्रद्धा – सम्मान का महत्त्वपूर्ण प्रतीक है। दक्षिण भारत के नंबूदरीपाद ब्राह्मण (मुख्य पुजारी रावल) ही बद्रीनाथ मंदिर के पूजा – शृंगार के अधिकारी हैं। भगवान नारायण, जिनकी नाभि – कमल से प्रजापति ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई, का निवास होने के कारण ही पुराणों में सर्वश्रेष्ठ तपोभूमि बद्रिकाश्रम और चारों धामों में श्रेष्ठ धाम बदरीनाथ कहा गया है।

बहूनि संति तीर्थानि, दिवि भूमि रसासु च।
बदरी सदृशं तीर्थ, न भूतो न भविष्यति॥

बद्रीनाथपुरी ऋषिकेश से लगभग 292 एंव हरिद्वार से 320 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मंदिर से कुछ हटकर नीचे अलकनन्दा के पार्श्व में गर्म जलधारा ‘तप्तकुण्ड’ है। समीप ही श्राद्ध तीर्थ ब्रह्मकपाल, प्रहलाद्धारा, कूर्मधारा, नारदकुंड, ऋषिगंगा, शेषनेत्र तथा चरणपादुका आदि तीर्थ हैं। बद्रीनाथ से तीन किलोमीटर की दूरी पर सीमांत जनजाति ग्राम माणा, मातामूर्ति का मंदिर, व्यास गुफा, भीमपुल तथा केशवप्रयाग है। विष्णु भगवान, नर – नारायण आदि देवताओं की मूर्तियाँ बद्रीनाथ मंदिर में हैं। मंदिर परिक्रमा में शंकराचार्य, लक्ष्मी जी का मंदिर तथा देवी – देवताओं की मूर्तियाँ हैं और तप्तकुण्ड के पास छोटा शिवालय भी है।

बद्रीनाथ को महाभारत एवं पुराणों में मुक्तिप्रदा, योगसिद्धा, बद्रीवन, बद्रिकाश्रम, विशाला, नरनारायणआश्रम आदि नामों से संबोधित किया गया है। पौराणिक मत से बदरीवन का विस्तार 48 मील लंबा 12 मीटर चौड़ा माना जाता है। पापियों के लिए यह स्थान अगम्य है और अन्यों के लिए परम ऐश्वर्य देने वाला है और यह भी लिखा है कि बदरीवन कण्व ऋषि के आश्रम जिसे वर्तमान में कण्वाश्रम के नाम से जाना जाता है, से नन्दागिरी पर्वत तक, भोग और मोक्ष का देने वाला तीर्थ है। इसमें गन्धमादन पर्वत बदरीवन और नर नारायण का आश्रम और अनेक तीर्थों से सुसज्जित कुबेरशिला है।

Contents hide

पौराणिक ग्रंथों में बद्रीनाथ का वर्णन – Description of Badrinath in mythological scriptures

यः स भूतं भविष्यच्च भवच्च भरतर्षभः
नारायणः प्रभुविर्षष्णु शाश्वतः पुष्षोत्तम।
तस्यातिशय सः पुण्यां विशाला बदरीमनु
आक्षमः रव्यायते पुण्य स्त्रिघु लोकेषु विश्रुतः॥
                                         (महाभारत वनपर्व)

(अर्थात् भरत श्रेष्ठ! भूत, भविष्य और वर्तमान जिसका स्वरूप है, जो सर्व यशस्वी, सर्वव्यापी, सनातन एवं पुरुषोत्तम नारायण हैं, उन अत्यंत यशस्वी हरि की पुण्यमयी विशाला-पुरी, बदरीवन के निकट है। वह जिसे नारायण आश्रम कहा गया है। वही पुण्यप्रद बदरिकाश्रम तीनों लोकों में विख्यात है।)

निःसन्देह ऋग्वेद के दशम मण्डल में संकलित ‘पुरुषसूक्त’ के निर्माता नारायण ऋषि ने गन्धमादन पर्वत पर बदरिकाश्रम की स्थापना की थी, उसी से भारत में वैदिक धर्म और सतयुग का प्रादुर्भाव हुआ। स्कंदपुराण के अनुसार सतयुग के आरंभ में स्वयं भगवान, लोक कल्याण हेतु श्री बद्रीनाथ में मूर्तिमान हुए। बौद्धकाल के उपरांत सनातन धर्म को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा देश की धार्मिक एकता की दृष्टि से जिन चार धामों की स्थापना की गई थी, उसके अंतर्गत भारत के उत्तर में बद्रिकाश्रम (ज्योतिर्पीठ), दक्षिण में रामेश्वरम् (शृंगेरी शारदापीठ), पश्चिम में द्वारिकापुरी (शारदापीठ) तथा पूर्व में जगन्नाथपुरी (गोवर्द्धनपीठ) है।

3133 मीटर की ऊँचाई पर स्थित बद्रीनाथ भगवान विष्णु का मंदिर, मानव की धार्मिक चेतना और भारत की आध्यात्मिक शांति का स्रोत है। महाभारत (वनपर्व), स्कन्दपुराण (वैष्णवखंड), पद्मपुराण (सृष्टिखंड), भागवत पुराण (एकादश स्कन्द), देवी भागवत (चतुर्थ स्कन्द), वायुपुराण, वामन पुराण, कूर्मपुराण, नारदपुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, वाराह पुराण, हरिवंश पुराण, ब्रह्मांड पुराण में इस क्षेत्र की महिमा का वर्णन विस्तार से किया गया है। स्कन्दपुराण में उल्लेख आता है कि ऐसा तीर्थ न तो इससे पूर्व हुआ है और न ही भविष्य में होगा।

पुराणों में इस तीर्थ को मुक्तिप्रदा, योगसिद्धा, विशालापुरी, नर – नारायणश्रम, बदरिकाश्रम तथा बद्रीनाथ नामों से उद्धृत किया गया है। बद्रीनाथ तीर्थ में स्नान करने से मनुष्य को स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। बदरिकाश्रम में भगवान विष्णु नारायण रूप में विराजमान हैं। इस क्षेत्र को नारायणाश्रम भी कहा जाता है।

श्रीमद् भागवत तथा वामन पुराण में कई जगह हरि, कृष्ण, नर तथा नारायण चार भाइयों का उल्लेख आता है। कहा जाता है कि भगवान बदरीविशाल की मूल मूर्ति को बौद्धों ने नारदकुण्ड (तप्त कुण्ड के नीचे) में फेंक दिया था। 9 वीं सदी के पूर्वार्द्ध में आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा मूर्ति को नारदकुण्ड से निकालकर मन्दिर में प्रतिष्ठापित किया गया।

 नर – नारायण पर्वतों के मध्य प्रवाहित विष्णुगंगा भगवान बदरीविशाल के चरणों को स्पर्श करती हुई विष्णुप्रयाग में धौली में संगम करने से पूर्व अलकनन्दा कहलाती है। विष्णुगंगा (पौराणिक धर्मग्रन्थों में इसे अलकनन्दा भी कहा गया है) में ही दाएं पाश्र्व पर नारदकुण्ड तथा इससे ऊपर तप्तकुण्ड है। तप्तकुण्ड में स्नान करने के पश्चात श्रद्धालु भगवान बद्रीनाथ के दर्शन करने जाते हैं। वनतुलसी माला, चने की कच्ची दाल, गिरी गोला, मिश्री आदि का प्रसाद यात्रियों द्वारा भगवान को चढ़ाया जाता है। पुराणों के अनुसार यहाँ नारदमुनि ने तप किया था। अतः इस स्थान को नारदपुरी भी कहते हैं।

बद्रीनाथ के पुजारी ‘रावल’ | Priest of Badrinath ‘Raval’

बद्रीनाथ स्थित भगवान विष्णु की पूजा पारम्परिक रूप से केरल के नंबूदरी ब्राह्मणों द्वारा की जाती है। बद्रीनाथ की पूजा रावल के अतिरिक्त कोई और नहीं कर सकता है। रावल दक्षिणी देश का अथवा चोली या मुकाणी जाति का होता है। रावल को विवाह करने का अधिकार नहीं है। उन्हें वेद का ज्ञाता होना चाहिए।

बद्रीनाथ मंदिर का पुरातात्त्विक स्वरूप | Archaeological form of Badrinath temple

बद्रीनाथ मंदिर के स्पष्टतः चार भाग हैं-
1. गर्भगृह 2. शालशिखर मंडप 3. गुंबदाकार शिखर, अर्द्धमंडप 4. सिंहद्वार इसमें से अंतिम तीन भाग नवीनतम रचनायें हैं। मुख्य मूर्ति, ‘शालिग्राम’ शिला द्वारा निर्मित है।

प्राचीनतम भाग मुख्यतः गर्भगृह प्रतीत होता है। यह त्रिरथ – विन्यास का है, जो अभ्यांतरत: 13’x7’10 ” और बाह्यत: 176 ” x15 ‘ आयाम का है। मंडोवर 12 फुट और मंदिर की संपूर्ण ऊँचाई 28 फुट है। शिखर ऊपर से काष्ठ निर्मित द्विछत्र, छाद्य से आच्छादित किया गया है। गर्भगृह की आंतरिक और बाह्य भित्तियों के ऊपर जीर्णोद्धार के संकेत स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं। मंदिर (गर्भगृह) का निर्माण एक उल्लेख के अनुसार गढ़वाल नरेश ने 15 वीं शती में कराया था। मंदिर, शैली के आधार पर 17 वीं शती से पुराना नहीं लगता और स्थापत्यकला के आधार पर वास्तव में यह सादा निर्माण है।

इसके वेदीबंध उपांग उत्तराखण्ड क्षेत्र में राजपूतकाल के पूर्व मध्यकालीन मंदिरों से सम्बन्ध रखते हैं। मंदिर के समीप फर्श पर कुछ चित्रित उत्तरांग और एक वितान खंड पाए गए हैं, जो 10 वीं या 11 वीं शती के लगभग के हो सकते हैं। उनकी सामान्य शैली अन्य प्राचीन मंदिरों की है। चूँकि यह प्रस्तर उसी प्रकार की है जैसी कि उत्तराखण्ड खंड प्राचीन मूल प्रासाद के हैं, अतएव यह निष्कर्ष निकलता है कि मूल मंदिर, मध्य हिमाद्री शैली में 10वीं – 11वीं सदी में कभी निर्मित हुआ था। कालांतर में प्राकृतिक प्रकोप के कारण मंदिर के कई भाग ध्वस्त हो गए और समय-समय पर उनका पनः जीर्णोद्धार होता गया।

बद्रीनाथ मंदिर में आरती का समय | Aarti Timings at Badrinath Temple

Badrinath temple

धरती के बैकुंठ श्री बद्रीनाथ धाम के कपाट ब्रह्म मुहूर्त में सुबह 04:30 बजे ही खुल जाते हैं। इस समय की जाने वाली आरती में भगवान बद्रीनाथ महाअभिषेक और अभिषेक किया जाता है साथ में गीतापाठ और भागवत पूजा का उच्चारण भी किया जाता है। श्रद्धालुओं के लिए बद्रीनाथ भगवान के दर्शन सुबह 7-8 बजे के आसपास खुलते है जो कि दोपहर के 1:00 बजे तक ही खुले रहते है।

इसके बाद दोपहर के 1:00 बजे से लेकर शाम को 4:00 बजे तक मंदिर के कपाट बंद रहते है। शाम को 4:00 बजे से लेकर रात को 9:00 बजे तक मन्दिर श्रद्धालुओं के दर्शन के लिए खुला रहता है। संध्या काल के समय बद्रीनाथ मंदिर में गीत गोविंद और आरती को उच्चारण किया जाता है।

बद्रीनाथ के कपाट खुलने व बंद होने का समय

महा हिमालय के पाद पर अत्यधिक ऊंचाई पर स्थित होने के कारण बद्रीनाथ में सर्दियों में भारी हिमपात होता है जिसके कारण नवंबर के तृतीय सप्ताह के लगभग बद्रीनाथ धाम के कपाट बंद किए जाते हैं एवं ग्रीष्म ऋतु के प्रारंभ होते ही प्रतिवर्ष अप्रैल-मई के महीने में बद्रीनाथ धाम के कपाट सभी भक्तों के लिए खोल दिए जाते हैं। कहते हैं कि वहाँ एक दीपक जो कपाट बंद होते समय जलाया जाता है कपाट खुलते समय तक यथावत जलता हुआ पाया जाता है। इसका दर्शन कपाट खुलने के समय में एकत्रित हुए यात्री बड़े उत्साह से करते हैं।

उस दर्शन को ज्योति दर्शन कहते हैं। अतः इस क्षेत्र में यात्रा का समय मई के अंत से सितंबर के अंत तक होता है। शीतकाल में पूरी बदरीशपुरी हिमाच्छादित होकर निर्जन और अगम्य हो जाती है। यात्री अमूमन हरिद्वार में अप्रैल माह में जमा हो जाते हैं और जब विश्वत संक्रांति का मेला समाप्त होता है, तब वह लोग बद्रीनाथ धाम की यात्रा प्रारंभ करते हैं। जब तक शीतकाल में बदरीशपुरी हिमाच्छादित रहने से अगम्य रहती है तब तक रावल और पुरी के लोग ज्योतिर्मठ (जोशीमठ) में रहते हैं। यह स्थान बदरीशपुरी से 46 किमी की दूरी पर है।

बद्रीनाथ मंदिर की संरचना | Badrinath Temple Structure

बदरीनाथ मंदिर के स्वरूप को समझने के लिए मंदिर को तीन भागों में बाँटा जा सकता है जो निम्न प्रकार है – सिंहद्वार, मंडल और गर्भगृह। धाम में मुख्य प्रतिमा (भगवान विष्णु की चिंतन मुद्रा) काले रंग की है, लेकिन खंडित है। मूर्ति के खंडित होने का मूल कारण शायद नारद कुंड में पड़े रहना है, जिसे शंकराचार्य ने निकालकर स्थापित करवाया था। मुख्य मूर्ति के पार्श्व में नर नारायण की, दाहिने कुबेर की एवं बायें नारद की प्रतिमाएं हैं।

यदि मंदिर के पूर्व स्वरूप की बात करें तो स्थापत्य कला की दृष्टि से वह मिश्रित शैली का था जिसे विद्वानों ने इण्डोपर्शियन कला नाम दिया था। वास्तव में मंदिर का प्रवेश द्वार तथा शीर्ष पर छतरियों का मेहरावदार आकार आज भी स्पष्ट कर देते हैं कि इसका निर्माण राजस्थान शैली से भवन बनाने वाले कलाकारों ने किया था। गर्भ गृह की 7 फीट मोटी दीवारें इसे हिमस्खलन के धक्के से बचाने में आज भी समर्थ हैं।

इस मंदिर का निर्माण संभवतः गढ़वाल वंश के प्रारंभिक राजा अजयपाल के शासनकाल में हुआ। परन्तु पूर्ण भव्य मंदिर बनाने का श्रेय कत्यूरी राजवंश को है। शंकुधारी शैली में बना यह मंदिर 15 मीटर ऊँचा है।

बद्रीनाथ की मूर्ति काले पाषाण की 3’9″ ऊँची है। मूर्ति के सिर का फलक टूटने से ललाट, आंख, नाक, मुख, ठोड़ी स्पष्ट नहीं दिखते। अतः श्रृंगार के समय चंदन पंक से उन्हें सुंदर आकृति प्रदान की जाती है। इसी प्रकार दाएं-बाएं दोनों हाथों का थोड़ा सा पत्थर भी टूट कर निकल गया है। इससे मूर्ति किस मुद्रा में है इस पर विभिन्न अनुमान लगाए जाते हैं। विद्वानों ने इसे ध्यानावस्थित मुद्रा ही माना है। मूर्ति के ललाट पर हीरा, सिर पर सोने का दमकता छत्र, एक बड़ा दर्पण भी जिस पर बाहर की वस्तुओं की छाया पड़ती है स्थित है।

चारों ओर स्वर्ण रजतपात्र धूपदीप नैवेद्य, दान सभी कुछ मिलाकर एक भव्य आलौकिक वातावरण की सृष्टि करते हैं। मूर्ति के दाएं और नर-नारायण, भूदेवी, श्रीदेवी तथा बायीं ओर गणेश, कुबेर तथा सम्मुख में नारद उद्धव एवं गरुण की मूर्तियां हैं जो बदरीश पंचायतन कि सृष्टि करते हैं। मंदिर परिसर में लक्ष्मी, गणेश, हनुमान, घंटाकर्ण मंदिर तथा कुछ हटकर शंकराचार्य की गद्दी है। कुबेर घण्टाकर्ण के पूजक मूलतः दुरियाल होते थे, जबकि लक्ष्मी के पुजारी डिमरी होते हैं। बद्रीनाथ की पूजा रावल करता है जो केरल का नम्बूद्री ब्राह्मण होता है। बाहर धर्माधिकारी एवं सहायकों के आसन होते हैं। यहीं पर विशेष पूजा कराने वालों को सामान्य दर्शकों से वरीयता प्रदान की जाती है।

बद्रीनाथ धाम के आसपास दर्शनीय स्थल | Attractions around Badrinath Dham

धरती पर एकमात्र दिव्य बैकुंठ स्थान होने के कारण यहाँ अनेक पवित्र दर्शनीय स्थल हैं जिनमें पाँच कुण्ड, पाँच धाराएँ, शिलाएँ व गुफाएँ मुख्य हैं।

पाँच पवित्र कुण्ड

तप्तकुण्ड, नारदकुण्ड, सत्यपथकुण्ड, त्रिकोणकुण्ड और मानुषीकुण्ड। पाँचवा मानुषीकुण्ड ठण्डे जल का स्रोत है।

पाँच पवित्र धाराएँ

कूर्म धारा, प्रह्लाद धारा, इन्दु धारा, उर्वशी धारा, तथा भृगु धारा।

पवित्र पाँच शिलाएँ

गरूड़ शिला, नारद शिला, मार्कंडेय शिला, नृसिंह शिला, और ब्रह्मकपाल शिला।

पवित्र पाँच गुफाएँ

स्कन्द गुफा, गरूड़शिला गुफा एंव राम गुफा, मुचकुंद गुफा, गणेश एंव व्यास गुफा।

ब्रह्मा कपाली | Bramha Kapal

Bramha Kapal

बद्रीनाथ मंदिर से थोड़ी दूरी पर ब्रह्म कपाली है जहाँ लोग अपने-अपने पितरों का पिंड दान करते हैं, श्राद्ध करते हैं। ऐसी मान्यता है कि यहाँ पर एक बार पितरों का पिण् डदान करने पर पुनः फिर पिण्ड दान करने की आवश्यकता नहीं होती एवं पितरों को मुक्ति प्राप्त होकर स्वर्ग की प्राप्ति होती है। अतः दूर-दूर से लोग यहाँ अपने पितरों को तारने आनते हैं। यहाँ का महत्व लिखा है कि ब्रह्माकपाल में पिंड दान देने से गया में पिंड देने की आवश्यकता नहीं होती।

भारत का आखिरी गाँव माणा | Mana the last village of India

Mana the Last Indian village.

माणा, उत्तराखण्ड राज्य के सीमांत जनपद चमोली में सुप्रसिद्ध धाम श्री बद्रीनाथ से मात्र 3 किलोमीटर की दूरी पर भारत-तिब्बत सीमा का अंतिम गाँव है। माणा गाँव, समुद्र तल से 3200 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है  जो भारत – तिब्बत की सीमा से 26 किलोमीटर दूर है। पैनखण्डा परगने में सरस्वती नदी के किनारे 10,498 फीट की ऊँचाई पर बसे इस खूबसूरत सीमांत गाँव की वर्तमान में कुल जनसंख्या 1190 है। वहीं वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार यहाँ की जनसंख्या 1214 थी।

‘स्कंद पुराण’ के ‘केदारखण्ड’ में मणिभद्रपुर नाम से माणा गाँव का उल्लेख हुआ है। कथा है कि देवताओं के खजांची कुबेर के अतिप्रिय सेवक मणिभद्र यक्ष के नाम पर गाँव का ‘मणिभद्रपुर’ नाम पड़ा, जिसे कालांतर में माणा कहा जाने लगा।

यहाँ केशव प्रयाग पर अलकनंदा एवं सरस्वती नदी का संगम होता है। यहाँ के दर्शनीय स्थलों में गणेश गुफा, व्यास गुफा, स्कन्ध गुफा, मूचकुन्द गुफा, राम गुफा और भीम पुल मुख्य है। यहाँ घंटाकर्ण का मंदिर स्थित है। माणा गाँव के समीप वसुधारा प्रपात है।

माणा गाँव में मुख्य दर्शनीय स्थल | Main attractions in Mana village

वसुधारा प्रपात |Vasudhara Falls

Vashudhara fall.

श्री बदरीनाथ धाम से 4 किलोमीटर आगे माणा गाँव से पश्चिम की ओर 5 किलोमीटर की दूरी पैदल यात्रा मार्ग पर वसुधारा प्रपात स्थित है। ‘वसु’ भगवान विष्णु को दर्शाता है तथा संस्कृत में ‘धारा’ को नदी कहा गया है। अतः वसुधारा का अर्थ “भगवान विष्णु का मार्ग” है। यह वसुधारा प्रपात हिमाच्छादित शिखरों, ग्लेशियरों एवं ऊँची चट्टानों की पृष्ठभूमि में स्थित है। इस झरने में लगभग 145 मीटर की ऊँचाई से जल गिरता है। वसुधारा प्रपात चौखम्बा, नीलकंठ व बालकुन पर्वतों के निकट स्थित है। इस प्रपात का जल अलकनंदा नदी में बहता है। बद्रीनाथ मंदिर से वसुधारा प्रपात की दूरी 9 किमी है। सतोपंथ ग्लेशियर वसुधारा झरने के ठीक नीचे आगे की ओर स्थित है व सतोपंथ ताल बद्रीनाथ से 25 किमी की दूरी पर स्थित है। वसुधारा से आगे लक्ष्मी वन से होकर प्रकृति प्रेमी सतोपंथ ग्लेशियर तक पहुँचते हैं।

पाण्डव महाभारत युद्ध के बाद इसी वसुधारा के रास्ते से होकर स्वर्गारोहिणी यात्रा के लिये गए थे। पाँच पाण्डवों में से सहदेव ने इसी वसुधारा के निकट अपने प्राण त्यागे थे।

ऐसी मान्यता है कि इस प्रपात का जल हर किसी व्यक्ति पर नहीं गिरता, जो सच्चे मन व सात्विक भावना से यहाँ की यात्रा करता है उसी के ऊपर इसकी बूँदे गिरती है। ऐसा कहा जाता है कि जिस किसी के ऊपर इसका जल गिरता है वह पुण्यात्मा होती है व उसे मोक्ष का अधिकारी माना जाता है। इतनी अधिक ऊँचाई से गिरते झरने की पानी की बूँदें दूर से अति मनमोहक नजर आती है। मन को शांत कर देने वाले सात्विक वातावरण के बीच खुद को पाकर पर्यटक मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।

वसुधारा प्रपात कब जाएँ | When to visit Vasudhara Falls

पर्यटकों के लिए वसुधारा प्रपात आमतौर पर मई के दूसरे सप्ताह से अक्टूबर या नवम्बर तक खुला होता है। इसके बाद भारी हिमपात के कारण यहाँ जाना संभव नहीं हो पाता।

व्यास एंव गणेश गुफा | Vyas and Ganesh Caves

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि तपोभूमि बद्रिकाश्रम के निकट इसी स्थान पर पुण्य सलिला अलकनंदा और सरस्वती के संगम पर व्यासगुफा में महर्षि व्यास जी ने महाभारत ग्रंथ की रचना की थी। महर्षि व्यास जी ने गुफा में बैठकर महाभारत को मौखिक तौर पर कहा था और उसे लिखने का काम गणेश जी ने गणेश गुफा में किया था। अतः वेदव्यास जी ने गणेश जी की मदद से महाभारत महाकाव्य की रचना की व इसी गणेश गुफा में बैठकर गणेश जी ने महाकाव्य को लिखा। अलकनंदा व सरस्वती नदी के किनारे एक और गुफा है जिसे व्यास गुफा कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि इसी गुफा में रहकर वेदव्यास जी ने सभी पुराणों की रचना की थी। व्यास गुफा को व्यास पोथी उपनाम से भी जाना जाता है। इसे पुराणों में मणिभद्र कहा गया है। आज भी इस स्थान पर व्यास गुफा, गणेश गुफा तथा मुचकुन्द गुफा को उसी मूल रूप में देखा जा सकता है।

भीम पुल | Bheem Pul

Bheem pul

भीम पुल, बद्रीनाथ से 4 किमी की दूरी पर भारत के सीमांत गाँव माणा से कुछ ही दूरी पर अलकनंदा नदी के किनारे व सरस्वती नदी के ऊपर बना स्थित है। इसी के उन्नत भाग से सरस्वती निकलकर केशवप्रयाग में अलकनंदा में मिल जाती है। इस उद्गम स्थल को अलकापुरी कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि स्वर्गारोहिणी जाते वक्त द्रोपदी व पाण्डव रास्ते में सरस्वती नदी को जब पार न कर सके तो महाबली भीम ने एक बड़ी सी शिला को उठाकर नदी के दोनो छोर पर रख दिया व आगे जाने का मार्ग प्रशस्त किया। तभी से इस पुल को भीम पुल के नाम से जाना जाने लगा। सरस्वती नदी पर बने इसी पुल को पार करके पर्यटक वसुधारा झरने की ओर सुगमता से जा पाते हैं। यहाँ आने वाले पर्यटकों को यह भीम पुल आश्चर्यचकित करता है। भीम द्वारा उठाए जाने पर भीम की उंगलियों के छाप आज भी इस भीम पुल की शिला पर देखे जा सकते हैं।

भारत की आखिरी चाय की दुकान | India’s last tea shop

India's last tea shop. Bharat ki aakhiri chai ki dukan.

भारत के सीमांत उत्तरी जनपद चमोली के आखिरी छोर पर भीम पुल के निकट स्थित है भारत की आखिरी चाय की दुकान। केशव प्रयाग जहाँ अलकनंदा व सरस्वती नदी का संगम होता है के किनारे पर स्थित यह छोटी सी चाय की दुकान यहाँ आने वाले पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करती है। पर्यटक अमूमन यहाँ चाय पीते हैं व खूब सारी फोटो खिंचवाते हैं।

मातामूर्ति का मंदिर | Mata Murti Temple

माणा गाँव में ही मातामूर्ति का मंदिर है, जिन्हें श्री बद्रीनाथ जी की माता होने का गौरव प्राप्त है। यहीं पर घंटाकर्ण का मंदिर भी उल्लेखनीय है, जो बद्रीनाथ के कपाट बंद होने के साथ ही शीतकाल में बंद हो जाता है। वामन द्वादशी को यहाँ मेला लगता है। यहाँ के लोग माता मूर्ति का उत्सव बड़े धूमधाम से मनाते हैं।

भारत-तिब्बत व्यापार का मुख्य मार्ग माणा गाँव | Mana village, the main route of Indo-Tibetan trade

Mana village, the main route of Indo-Tibetan trade

समुद्र तल से 200 मीटर (10,498 फीट) की ऊँचाई पर स्थित माणा गांव वर्ष 1962 के भारत-चीन युद्ध से पूर्व तिब्बत से व्यापार का प्रमुख केंद्र हुआ करता था। लेकिन युद्ध के बाद यहाँ के सारे हालात बदल गए। युद्ध के बाद यहाँ से तिब्बत की आवाजाही पर रोक लगा दी गई, लेकिन माणा का महत्व फिर भी बना रहा। माणा गाँव एक भोटिया गाँव है और भारतवर्ष को ‘सोने की चिड़िया’ कहलाने में इन भोटियों की भूमिका प्रशंसनीय रही है। प्राचीनकाल में तिब्बत से स्फटिक, पुखराज, स्वर्णमक्षिका, लैपिस लजूली एवं अन्य बहुमूल्य पाषण रत्नों का आयात इन्हीं भोटांतिकों द्वारा नीति-माणा तथा जोहार, दारमा, व्यास आदि के दर्रों द्वारा किया जाता था। वस्तु विनिमय प्रणाली के अंतर्गत वे तिब्बती व्यापारियों को अनाज, सूती वस्त्र, श्वेत अभ्रक, केसर, त्रिफला, कस्तूरी, शिलाजीत, भोजपत्र, ग्रंथपर्णिका, पशुओं की खालें तथा भांग से निर्मित वस्तुएं निर्यात करते थे।

तिब्बत के हुणिया व्यापारियों से माणा के भोटांतिकों का व्यापार आर्थिक जीवन का एक महत्वपूर्ण आधार रहा है। इस व्यापार से सम्बन्धित अनेक प्रथाएँ प्रचलित थीं। प्रत्येक भोटांतिक व्यापारी का तिब्बत में एक मध्यस्थ होता था। जिसे ‘मितुर’ कहा जाता था। इस मित्रता को स्थापित करने के लिए एक रस्म ‘सुजली मुजली’ आवश्यक थी। जिसमें एक ही प्याले से पहले तिब्बती मध्यस्थ ‘छंग’ मंदिरा की घूंट लेता था और फिर भोटांतिक व्यापारी भी उसी प्याले से जूठी शराब पीकर तिब्बती मध्यस्थ को एक सफेद रुमाल भेंट देता था। इसके पश्चात् व्यापार का शर्तनामा लिखा जाता था।

वह अभिलेख ‘गमग्या’ कहलाता था। इसके अनुसार एक पत्थर के दो टुकड़े करके एक भोटांतिक व्यापारी के पास तथा दूसरा तिब्बती मितुर के पास व्यापार समझौते के प्रतीक स्वरूप रहता था। सन् 1962 ई ० में तिब्बत पर चीनी अधिपत्य हो जाने के कारण शताब्दियों से प्रचलित तिब्बत के साथ भोटांतिकों का व्यापार पूर्णतया समाप्त हो गया, जो भोटांतिकों के आर्थिक जीवन के ऊपर बहुत बड़ा आघात था, किन्तु यह जनजाति अब केवल हिमालय के शिखरों और घाटियों तक ही सीमित नहीं रही, इनमें पर्याप्त परिवर्तन आ गया है। ये लोग उच्च शिक्षा प्राप्त कर निरन्तर विकास की ओर अग्रसर हैं तथा केन्द्रीय तथा राज्य सेवाओं में कार्यरत हैं।

भारत का आखिरी गाँव माणा बनेगा ‘हेरिटेज विलेज’ | India’s last village Mana to become ‘Heritage Village’

भोटिया जनजाति के लोगों का यह गाँव माणा बेहद खूबसूरत है जहाँ स्थानीय लोग, तीर्थाटन एवं पर्यटन से अपनी आजीविका चलाते हैं। पर्यटक व श्रद्धालु यहाँ से हाथों से बने ऊनी वस्त्र, गलीचे, कालीन, दन, शॉल, पंखी सहित अन्य पारंपरिक वस्तुएं खरीदकर ले जाते हैं। माणा गाँव निवासी पीतांबर मोल्फा कहते हैं कि माणा के ‘हेरिटेज विलेज’ बनने से गाँव में न केवल पर्यटन सुविधाओं का विकास होगा, बल्कि स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के साधन भी विकसित होंगे। सरकार द्वारा माणा गाँव को होम स्टे के तहत लाभान्वित करने की योजना भी बनाई जा रही है।

माणा को ‘हेरिटेज विलेज’ के रूप में विकसित करने की दिशा में माणा गांव में ऑडिटोरियम, म्यूजियम, एंपीथियेटर और पार्किंग का निर्माण होना है। साथ ही भीमपुल, व्यास गुफा, गणेश गुफा व आसपास के क्षेत्रों का सुंदरीकरण भी होना है। चीन की सीमा पर स्थित देश के अंतिम गाँव माणा को ‘हेरिटेज विलेज’ बनाने की सरकार की पहल सराहनीय है।

उत्तराखण्ड सरकार माणा गाँव को एक पर्यटन गाँव के रूप में विकसित करने का प्रयास कर रही है। माणा घाटी पूर्व काल में भारत-तिब्बत व्यापार का मुख्य मार्ग था।

सतोपंथ, घसतोली, रताकोण, लक्ष्मीबन – ये सभी बुग्याल चमोली के अंतिम गाँव माणा से ऊपर ऊँचाई पर स्थित हैं।

2022 में कब खुलेगें बद्रीनाथ धाम के कपाट | When will the doors of Badrinath Dham open in 2022

इस वर्ष श्री बद्रीनाथ धाम के कपाट 8 मई 2022 को प्रातः 6:15 पर खुलेगें।

बद्रीनाथ में कहाँ रुके | Where to stay in Badrinath

बद्रीनाथ धाम भारत के चार धामों से एक मुख्य धाम है। संपूर्ण भारत के कोने-कोने से श्रद्धालु बद्रीनाथ के दर्शन करने यहाँ पहुँचते हैं। यही कारण है कि यहाँ यात्रियों की सभी सुविधाओं का ध्यान रखते हुए रूकने की उचित व्यवस्थाएँ हैं। अच्छे-अच्छे होटल, धर्मशालाएँ, लॉज इत्यादि मौजूद हैं। उत्तरखण्ड पर्यटन विकास परिषद् एंव गढ़वाल मण्डल विकास निगम के गेस्टहाउस भी यहाँ उपलब्ध है।

मुख्य शहरों से बद्रीनाथ की दूरी | Distance of Badrinath from main cities

हरिद्वार से - 320 किमी
ऋषिकेश से - 292 किमी
जोशीमठ से - 46 किमी
दिल्ली से - 541 किमी
हल्द्वानी से - 336 किमी
चण्डीगढ़ से - 528 किमी

बद्रीनाथ धाम कैसे पहुँचे | How to reach Badrinath

महा हिमालय की गगनचुंबी हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं के तलहटी में अलकनंदा नदी के तट पर स्थित भारत के चार धामों में से मुख्य धाम बद्रीनाथ धाम आप विभिन्न मार्गों से पहुँच सकते हैं। नीचे हमने हवाई, रेल व सड़क मार्ग से बद्रीनाथ पहुँचने की सटीक जानकारी साझा की है।

हवाई जहाज से | By Air

अगर आप हवाई यात्रा करके बद्रीनाथ धाम पहुँचना चाहते हैं तो निकटतम हवाई अड्डा जौलीग्रांट (देहरादून) है। जौलीग्रांट हवाई अड्डा से आप बस से ऋषिकेश पहुँच सकते हैं जहाँ से आपको बद्रीनारायण जाने के लिए सीधे बस व टैक्सी की सुविधा मिल जाएगी। ऋषिकेश से बद्रीनाथ धाम 292 किलोमीटर है।

ट्रेन से | By Rail

यदि आप बद्रीनाथ में की यात्रा रेलगाड़ी के माध्यम से करना चाहते हैं तो आप दिल्ली से हरिद्वार या दिल्ली से कोटद्वार रेल के द्वारा पहुँच सकते हैं। जहाँ से आपको बस व टैक्सी सुविधा उपलब्ध हो जाऐगी। कोटद्वार से बद्रीनाथ धाम की दूरी 324 किलोमीटर व हरिद्वार से 318 किलोमीटर है। अगर आप कुमाऊँ से आ रहे हैं तो हल्द्वानी से बस से आप सीधे बद्रीनाथ धाम पहुँच सकते हैं। हल्द्वानी से बद्रीनाथ धाम की दूरी 336 किलोमीटर है।

सड़क मार्ग से | By Road

बस से सफर करने वाले यात्री ऋषिकेश से देवप्रयाग, श्रीनगर, रूद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, नन्दप्रयाग, जोशीमठ होते हुए 292 किलोमीटर की दूरीशतय कर बद्रीनाथ धाम पहुँच सकते हैं। वहीं दूसरी ओर अगर यात्री कोटद्वार के रास्ते आना चाहते हैं तो कोटद्वार, पौड़ी होते हुए भी बद्रीनाथ पहुँचा जा सकता है। इस मार्ग से बद्रीनाथ की दूरी 324 किलोमीटर है। श्रीनगर में ऋषिकेश और पौड़ी से आने वाले दोनों मार्ग मिल जाते हैं। बद्रीनाथ के लिए रामनगर और हल्द्वानी से भी मार्ग हैं। हल्द्वानी से बद्रीनाथ धाम की दूरी 336 किलोमीटर है।

Follow Us

Leave a Comment