कण्वाश्रम | Kanvashram | The Birth Place of Emperor Bharat

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कण्वाश्रम का परिचय |
Introduction to Kanvashram

हिमालय के पाद में शिवालिक पहाड़ी की तलहटी पर हेमकूट और मणिकूट पर्वतों की गोद में स्तिथ ‘कण्वाश्रम’ ऐतिहासिक तथा पुरातात्विक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण पर्यटन स्थल है। मालिनी नदी के तट पर स्थित इसी स्थान पर चक्रवर्ती सम्राट राजा भरत का जन्म हुआ था। जिसके नाम पर आगे चलकर हमारे देश का नाम भारत पड़ा। हजारों वर्ष पूर्व ऋग्वेद व पौराणिक कथाओं में जिस मालिनी नदी का जिक्र किया गया है वह आज भी भाबर के बहुत बड़े क्षेत्र को सिंचित कर रही है। मालिनी नदी जो कि महागढ़ पर्वत के चरणों में बहती है जिसको अमर कवि कालिदास ने उतना ही पवित्र माना है जितना कि गंगा नदी को। प्राचीनकाल में गढ़वाल क्षेत्र में जिन दो विद्यापीठों का जिक्र किया गया है उनमें पहला बद्रिकाश्रम व दूसरा कण्वाश्रम था। महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ की रचना इसी कण्वाश्रम में की। आइए अब जानते हैं कण्वाश्रम के विषय में संपूर्ण तथ्यात्मक जानकारी।

कण्वाश्रम के ऐतिहासिक तथ्य |
Historical Facts of Kanvashram

Kanvashram
कण्वाश्रम में महर्षि कण्व, भरत व शकुन्तला को समर्पित एक छोटा सा मंदिर

संपूर्ण मालिनी घाटी इतिहास का भण्ड़ार है।
इड़ा, मथाणा, बल्ली, कण्ड़ाई आदि क्षेत्र जो कि पौखाल व कोटद्वार से सटे गाँव हैं कण्वाश्रम के क्षेत्र में माने जाते थे। स्वर्गीय पंडित सदानंद जखमोला के द्वारा कण्वाश्रम के संबंध में लिखे एक अमर लेख जिसे बाद में कुंवर सिंह नेगी ‘कर्मठ’ द्वारा छापा गया जो उन्हें जीर्ण-शीर्ण हालत में स्वर्गीय वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की एक फाइल में मिला था, उसके आधार व अन्य स्रोतों के मतानुसार कुछ महत्वपूर्ण व खोजपूर्ण लेख के कुछ अंश आप सभी की जानकारी हेतु पुनः समेटने का प्रयास कर रहा हूँ।

जिस आश्रम के कुलपति महर्षि कण्व थे उस आश्रम के अधिष्ठाता महर्षि विश्वामित्र थे। महर्षि वाल्मीकि ने इसका वर्णन वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में किया है। महर्षि विश्वामित्र मध्य भारत में सोनभद्र के निकट तपस्या करते थे। वहाँ उनके आश्रम का नाम सिद्धाश्रम था। भगवान राम-लक्ष्मण उनकी सेवा के लिए यहीं गए थे। इस सिद्धाश्रम में महर्षि विश्वामित्र विघ्नों से तंग आकर उत्तर भारत में हिमवत देश (गढ़वाल) में चले आए और यहाँ पर उन्होंने आश्रम बनाया और उसका नाम सिद्धाश्रम रखा। महर्षि कण्व जिस आश्रम के कुलपति हुए उसका नाम पूर्व में सिद्धाश्रम ही था। इसी आश्रम में महर्षि विश्वामित्र से मेनका का प्रणय हुआ और शकुंतला का जन्म मालिनी नदी के तट पर हुआ। शकुंतला का पालन पोषण इन्हीं महर्षि कण्व ने किया। इसी आश्रम में सम्राट दुष्यंत का शकुंतला के साथ गंधर्व विवाह हुआ और महाराजा भरत का जन्म इसी आश्रम में हुआ। यह वर्णन महर्षि व्यास ने महाभारत के आदि पर्व में विस्तृत रूप से किया है एंव यही वर्णन पुराणों में भी पाया जाता है।

महर्षि कण्व से पूर्व तथा पश्चात कई महर्षि इस आश्रम के कुलपति रहे। कण्व के उपरांत इस आश्रम को कण्वाश्रम की ख्याति मिली। इसका कारण यह था कि चंद्र वंश में महाराजा भरत महान विख्यात सम्राट हुए। बचपन से ही भरत ने अपनी वीरता का परिचय देना प्रारंभ कर दिया था। एक प्रसिद्ध किवदंती के अनुसार राजा भरत ने बाल्यकाल में शेर के मुँह में हाथ ड़ालकर शेर के दाँत गिने थे। ऐसा भी कहा जाता है कि भरत बचपन में शेरों के साथ खेलता था। ऐसे वीर राजा का जन्म इस आश्रम में होने से महाभारत में इस आश्रम का विशेष वर्णन हुआ। इसी वर्णन को पुराणों ने भी अपनाया। महाकवि कालिदास ने ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ (महाराजा भरत की पहचान) लिख कर इस आश्रम को कण्व के नाम से अति ख्याति प्रदान कर दी। आज के वर्तमान समय में कण्व, मालिनी, शकुंतला तथा भरत शब्द आपस में परस्पर एक हो चुकें हैं। किसी भी एक शब्द का उच्चारण करने पर अन्य शब्दों का आभास स्वयमेव हो जाता है। इसी आश्रम में महर्षि विश्वामित्र की पुत्री शकुन्तला, हस्तिनापुर के राजा दुष्यन्त से ब्याही गई थी। अतः राम, दशरथ, विश्वामित्र, रावण आदि महर्षि कण्व के समकालीन थे।

Malini River at Kanvashram
कल-कल बहती सुन्दर मालिनी नदी

ऋग्वेद का आठवाँ मण्ड़ल सम्पूर्ण कण्व सूत्रों से भरा है। उसकाल में मालिनी नदी का उद्गम आज के पौखाल के पास एक ताल से माना जाता है। यह ताल हींवल घाटी तक फैला था। कण्वाश्रम पौखाल से चौकीघाट तक फैला था। कण्वआश्रम मालिनी नदी के तट पर था, आज यह बात निर्विवाद है। महर्षि वाल्मीकि ने मालिनी नदी को उत्तर मालिनी लिखा है। अयोध्या काण्ड़ में महर्षि वाल्मीकि ने लिखा है कि भरत को बुलाने के लिए अयोध्या से जो दूत चले थे, उन्होंने उस मालिनी को जिसके तट पर कण्वाश्रम था, हिमवंत गढ़वाल के निकट पार किया तथा गंगा को पार किया। अयोध्या से कैकई देश पंजाब को जाने वाला मार्ग कंडी रोड थी जो चौकी घाट होकर जाती थी। सभी अयोध्या के यात्री इसी मार्ग से आते-जाते थे। महाराजा दिलीप इसी मार्ग से वशिष्ठ आश्रम शिवपुरी के निकट को आए थे। माना जाता है कि महर्षि कण्व का आश्रम जहाँ कण्व स्वंय रहते थे मैनका क्षेत्र के निकट मत्थाणा में था तथा मत्थाणा ही कण्वाश्रम का केंद्र था। इस आश्रम में अनेक ऋषि महर्षियों को उत्पन्न किया। महर्षि व्यास इसी आश्रम के स्नातक थे और इस आश्रम के कुलपति भी रहे। बड़े-बड़े उपनिषद, शास्त्र, तथा वेदांगों का अभिलेखन भी इसी आश्रम में हुआ। माना जाता है कि चाणक्य भी इस आश्रम के रास्ते से होकर गुजरे थे। महाकवि कालिदास तथा उनके दो साथी भी इसी आश्रम से पढ़े थे। ऋग्वेद में चार विद्यालयों की चर्चा है। जिसमें से कण्वाश्रम एक है। वक्त बीतता गया और समय के साथ-साथ इस आश्रम का बुढ़ापा भी बढ़ता गया और लगभग 1500 वर्ष पूर्व इस आश्रम से शिक्षा – दिक्षा कार्यक्रम समाप्त हो गया। कत्यूरी शासन में इस घाटी के रक्षक जगदेऊ कत्यूर थे। जो देवता की भाँति यहाँ पर पूजे जाते हैं। अंग्रेजी राज में इस घाटी में सुरक्षित वन व्यवस्था हुई और आश्रम का कुछ भाग लैंसड़ाउन वनखण्ड़ के अंतर्गत आ गया।

स्वर्गीय जगमोहनसिंह नेगी जो कि अविभाजित उत्तरप्रदेश सरकार में वनमंत्री रहे, के द्वारा लिखित पुस्तक “पर्यटकों का स्वर्ग उत्तराखण्ड” से साभार प्रसाद रूप में लिए कुछ संस्मरण के अनुसार महाबगढ़ शैल श्रृंग के चरणों पर लोटती हुई मालिनी नदी के तट पर अवस्थित कण्वाश्रम एक पवित्र एंव शांत वातावरण वाला स्थान है। मालिनी नदी के वामतट पर ‘शौंतलधार’ नामक दूसरा पर्वत श्रृंग अवस्थित है। शौंतलधार नामक इस पर्वत श्रृंग का नाम कदाचित ‘शकुंतलाधार’ रहा होगा। क्योंकि शौंतलधार, शकुंतला का अपभ्रंश मात्र प्रतीत होता है। महाकवि कालिदास ने अपने सुविख्यात नाटक ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ में कण्वाश्रम का वर्णन करते हुए उसकी भौगोलिक स्थिति के विषय में लिखा है कि यह आश्रम मालिनी नदी के तट पर सघन वन क्षेत्र में अवस्थित है। जहाँ पर मालिनी पर्वतीय भू-भाग को अंतिम प्रणाम कर मैदानी क्षेत्र का आलिंगन करती है।

शकुन्तला और दुष्यन्त के मिलन की कहानी |
The story of Shakuntala and Dushyant’s meet

Shakuntala at Kanvashram
मालिनी नदी के तट पर शकुन्तला

शक्तीशाली तथा निर्भय राजा दुष्यन्त जो कि एक धर्मावलंबी व अपनी प्रजा मे अत्यधिक लोकप्रीय था एक दिन जंगल मे शिकार पर निकला। एक हीरन का पीछा करते-करते राजा एक आश्रम मे पहुँच गया। आश्रम की सुंदरता को देख जहाँ फल-फूल के पेड़, कलकल बहती नदी व पशु पक्षियों की मधुर चहचहाहट को सुन राजा मंत्रमुग्ध हो गया व आश्चर्य में पड़ गया। मालिनी नदी के किनारे पर जल भरने आए कुछ साधू-संतों से बातचीत से पता चला कि आगे नदी के तट पर कण्व ऋषी का आश्रम है। अपने सैनिकों को बाहर छोड कर दुष्यन्त आश्रम मे प्रवेश करते हैं। आश्रम में प्रवेश करते ही उनका स्वागत एक अत्यन्त सुन्दर स्त्री शकुन्तला दवारा किया जाता है। आश्रम में दुष्यन्त का आदर सत्कार करने के बाद शकुन्तला कहती है कि पिता महर्षि कण्व, आश्रम में नहीं हैं। शकुन्तला की बातें सुन राजा आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहते हैं कि महर्षि कण्व तो ब्रह्मचारी हैं। आप उनकी पुत्री कैसे हो सकती हैं! तब शकुन्तला राजा को बताती है कि उनके पिता कण्व ने उनको बताया है, कि महार्षि विश्वामित्र की कठोर तपस्या से इन्द्र देवता अत्याधिक विचलित हो जाते हैं और उनकी तपस्या मे विघ्न डालने के उद्देश्य से अप्सरा ‘मेनका’ को धरती पर भेजते हैं।

मेनका अपनी क्रीयाओं से विश्वामित्र का ध्यान भंग करने के अपने उद्देश्य मे सफल होती है। उन दोनो के संयोग से मेनका एक कन्या को जन्म देती है। मेरी माता मुझे जन्म के तत्पश्चात वन में मालिनी के तट पर झाड़ियों में छोड़ देव लोक चली जाती है। तभी सिंटुल पक्षियों ने अपने पंखों से मुझ रोती हुई छोटी बच्ची को ढक लिया और मेरी रक्षा करती रही। सौभाग्यवश वन मे गुज़रते हुए महार्षि कण्व का ध्यान एक जगह अत्याधिक कोलाहल करते पंछियों की तरफ जाता है। जाँच करने पर उनकी नज़र मुझ पर पड़ी और वो मुझे उठा कर आश्रम मे ले आए तथा मेरा पालन-पोषण किया। शारीरिक जनक, प्राणो का रक्षक तथा अन्नदाता तीनों ही लोग पिता समान होते हैं। क्योकि उन्होने मेरी रक्षा की है तथा अन्न खिलाया है इसलिए कुलपति कण्व मेरे पिता है।

Raja dushyant and shakuntala at Kanvashram
शकुन्तला व राजा दुष्यन्त का प्रतीकात्मक चित्र

शकुन्तला के विचार, आचरण और सौन्दर्य से प्रभावित राजा दुष्यन्त ने शकुन्तला को अपनी पत्नी बनने का अनुरोध किया तथा कहा कि वो उनसे गन्धर्व विवाह कर ले। शकुन्तला ने राजा से प्रतीक्षा कर अपने पिता के आने का इन्तज़ार करने को कहा।पर राजा के पुनः अनुरोध कर शकुन्तला से गन्धर्व विवाह करने की इच्छा व्यक्त की। शकुन्तला ने अन्चिछा से गन्धर्व विवाह की सहमति दे दी, पर उससे पूर्व शकुन्तला ने राजा दुष्यंत से प्रतिज्ञा ली कि उनके पाणिग्रहण से जो पुत्र उत्पन्न होगा वो ही उनका उत्तराधिकारी होगा और इस देश का सम्राट बनेगा। राजा ने बिना सोचे समझे शकुन्तला की बात स्वीकार कर ली और गन्धर्व विधि से शकुन्तला का पाणिग्रहण किया। आश्रम मे कुछ समय बितने के उपरान्त राजा दुष्यन्त ने लौटने से पहले शकुन्तला को ये विश्वास दिलाया कि वो उसे लेने के लिए अपनी चतुरंगी सेना भेजेंगे। ये आश्वासन देने के बाद दुष्यन्त अपनी राजधानी को प्रस्थान कर गये। कुलपति कण्व जब आश्रम मे वापस आये तो उन्हें सब बातों का ज्ञान हुआ तो उन्होंने शकुन्तला से कहा कि जो गन्धर्व विवाह उसने किया है वो धर्म के अनुसार है। क्षत्रियों मे गन्धर्व विवाह को श्रेष्ठ माना जाता है। इसके अतिरिक्त राजा दुष्यन्त एक उदार तथा धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति हैं।

दुर्वासा ऋषि का शकुन्तला को श्राप |
Durvasha Rishi’s curse on Shakuntala

Durvasas_wrath_against_Shakuntala
राजा दुष्यन्त की याद में खोई शकुन्तला पर क्रोधित होते दुर्वासा ऋषि

महाकवि कालीदास के द्वारा रचित ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ के वृतांत के अनुसार राजा दुष्यन्त विदा लेते समय शकुन्तला के अनुरोध पर उसको यादगार स्वरूप अपनी राजसी अंगूठी निकाल कर उसे दे देते हैं तथा कहते है कि वो उसे लेने के लिए शीध्र अपनी चतुरंगी सेना भेजेगें। दुष्यन्त के जाने के बाद शकुन्तला राजा के ख्यालों में खोई रहती है। एक दिन दुर्वाशा ऋषि आश्रम में आते हैं। दुष्यन्त के खयालो में खोई शकुन्तला द्वारा दुर्वाशा ऋषि का उपयुक्त सम्मान नहीं हो पाता। इस उपेक्षा से क्रोधित हो कर दुर्वाशा ऋषि, शकुन्तला को श्राप देते हैं कि जिस की यादों में खो कर तूने मुझे उचित सम्मन नही दिया है वो तुझे भूल जायेगा। इस श्राप से सब आश्रम वासी सहम जाते हैं और दुर्वासा ऋषी से क्षमा माँगते हैं और शकुन्तला अपनी ग़लती मान क्षमा याचना करती है। दुर्वाषा कहते हैं की ऋषी का श्राप तो वापस नहीं लिया जा सकता पर पर उसका असर या सीमा कम की जा सकती है। अगर तुम उस व्यक्ति को कोई पहचान की वस्तु दिखाओगे तो वो तुम्हें पहचान जायेगा।

अपने पुत्र को उसका हक़ दिलाने के लिए शकुन्तला अपने पुत्र और कुछ आश्रम वासियों के साथ कुलपति कण्व का आशीर्वाद लेकर अपने पति राजा दुष्यन्त से मिलने के लिए आश्रम से प्रस्थान करती है। रास्ते में गंगा नदी को पार करने के लिए सब एक नाव में सवार होते हैं। नाव में सवार शकुन्तला नदी के पानी मे अपना हाथ डाल जल क्रीड़ा करती है। दुर्भाग्यवश उस दौरान उसकी उँगली से राजा की दी हुई अँगूठी निकल कर पानी में गिर जाती है। राजा दुष्यन्त की राजधानी पहुँच कर शकुन्तला अपने पुत्र के साथ राजा के महल मे उनसे मिलने जाती है और उनसे कहती है कि हे राजन आपने मेरे साथ गन्धर्व विवाह किया है और मेरे साथ ये बालक आप का पुत्र है और आप के दिये हुए वचन के अनुसार आप इसे अपनी शरण में ले लीजिये और इसे अपने राज्य का युवराज घोषित कीजिये।

दुर्वासा ऋषी के श्राप के कारण राजा दुष्यन्त को कुछ भी याद नहीं रहता और वे शकुन्तला को अपने विवाह की कोई निशानी दिखाने को कहते हैं।शकुन्तला जब अपना हाथ उठा कर दिखाती है तो उस में राजा की दी हुई अँगूठी नहीं होती। इस से शकुन्तला को सब के सामने अत्याधिक शर्मिन्दा होना पड़ता है और वो राज्य सभा को छोड़ कर अपने पुत्र के साथ वापस कण्वाश्रम आ जाती है। महाकवि कालीदास की रचना के अनुसार गंगा नदी में एक बड़ी मछली पकड़ने के बाद जब एक मछुवारा उसे काट रहा था तो उसके पेट में उसे सोने की अँगूठी मिलती है। अपने साथियों से पूछने पर उसे पता लगा कि वो अँगूठी तो राजा की है। इस बात का पता वहाँ मौजूद राजा के सिपाहियों को लगता है और वो उसे पकड़ कर राजा दुष्यन्त के पास ले जाते हैं। राजा जब उस अँगूठी को देखते हैं तो उन्हें सब याद आ जाता है और वो मछुवारे को बहुत सा इनाम दे कर विदा करते हैं।

अपनी याददाश्त वापस आने पर राजा को बहुत गिलानी होती है और वो अपने सेना के साथ शकुन्तला की खोज मे निकल पड़ते हैं। कण्वाश्रम के पास राजा को एक बालक दिखता है जो कि एक शेर का मुँह खोल कर उसके दाँत गिन रहा था। राजा के पूछने पर वो कहता है कि वो शकुन्तला का पुत्र है और राजा को आश्रम मे ले जाता है, जहाँ राजा दुष्यन्त का शकुन्तला से मिलन होता है। राजा दुष्यन्त अपनी पत्नी शकुन्तला और पुत्र को ले कर वापस अपनी राजधानी आ जाते हैं और अपने पुत्र को युवराज घोषित करते हैं।

एक अन्य कथा के अनुसार, शकुन्तला अपने पुत्र के साथ राजा दुष्यन्त के दरबार मे जाती है तथा राजा दुष्यन्त को उनको अपना दिया हुआ वचन को याद दिलाती है और कहती है कि ये जो बालक मेरे साथ है वो उनका पुत्र है तथा वचन अनुसार उसे युवराज बनाओ। इस पर राजा उसे बहुत बुरा – भला कह अपमानित करते है और अनेक अपशब्द कहते है। शकुन्तला अपनी बात समझाती रही पर सभा मे उपस्थित अन्य दरबारी भी उसका तिरस्कार करते है। अत्यंत दुखी मन से शकुन्तला अपने पुत्र के साथ राजा के दरबार से चल पड़ती है। पर उसी समय आकाश से भविष्यवाणी होती है “कि राजा दुष्यन्त तुम शकुन्तला का अपमान मत करो तथा जो वो कह रही है वो सत्य है और तुम राजा दुष्यन्त ही इस बालक के पिता हो। तुम्हारे द्वारा भरण-पाषाण के कारण ही इस बालक का नाम “भरत” होगा।” राजा दुष्यन्त तब सभी दरबारियों को सम्बोधित कर के कहते है कि “मैं तो जानता था कि ये मेरा पुत्र है पर शकुन्तला के कहने पर उसे अगर मैं उसे स्वीकार करता तो सारी प्रजा मुझ पर सन्देह करती और इस उद्देश्य से प्रेरित हो कर मैंने शकुन्तला से ऐसा व्यवहार किया”। फिर राजा शकुन्तला को रानी तथा अपने पुत्र को युवराज के रूप मे स्वीकार करते हैं।

दुष्यन्त के बाद भरत को उनका सिंहासन मिला तथा इस भू-खण्ड के सभी राजाओं को पराजित कर एक विशाल राज्य की स्थापना की और इसी चक्रवर्ती सम्राट के नाम से इस देश को “भारतवर्ष” के नाम से जाना गया। भरत ने अनेक यज्ञ कराये तथा उनके नाम से ही इस देश का नाम “भारतवर्ष” पड़ा। भरत के वंशजों ने महाभारत का युद्ध लड़ा। भरत के पुत्र भमन्य हुए, और उनके पुत्र सुहोत्रा और सुहोत्रा के पुत्र थे हस्ती जिन्होंने हस्तिनापुर बसाया।

कण्वाश्रम का प्राचीन वैभवशाली कालखण्ड |
The ancient glorious period of Kanvashram

कण्वाश्रम उच्च शिक्षा का केंद्र (विश्वविद्यालय) था। यहाँ वही शिक्षार्थी प्रवेश पा सकते थे जिन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूर्ण कर ली हो और अधिक अध्ययन करना चाहते थे। कण्वाश्रम में दस हजार विधार्थियों की पढ़ने, रहने व खाने की पूरी व्यवस्था थी। कण्वाश्रम में चारों वेदों, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्योतिष, आयुर्वेद, शिक्षा तथा कर्मकाण्ड इन सभी वेदांगों के अध्ययन-अध्यापन का प्रबन्ध था आश्रमवर्ती योगी एकान्त स्थानों में कुटी बनाकर या गुफ़ाओं के अन्दर रहते थे। प्राचीन काल से ही मानसखण्ड तथा केदारखण्ड़ की यात्राएँ श्रद्धालुओं द्वारा पैदल संपन्न की जाती थी। हरिद्वार, गंगाद्वार से कण्वाश्रम, महाबगढ़, ब्यासघाट, देवप्रयाग होते हुए चारधाम यात्रा अनेक कष्ट सहकर पूर्ण की जाती थी। ‘स्कन्द पुराण’ केदारखंड के 57वें अध्याय में इस पुण्य क्षेत्र का उल्लेख निम्न प्रकार से किया गया है-

“कण्वाश्रम समारम्य याव नंदा गिरी भवेत।
यावत क्षेत्रम परम पुण्य मुक्ति प्रदायक॥”

कण्वाश्रम का पौराणिक साक्ष्य |
Mythological Evidence of Kanvashram

पौराणिक साहित्यिक ग्रंथों में कण्वाश्रम, शकुंतला, भरत, दुष्यन्त व मालिनी नदी के विषय में विभिन्न श्लोकों व काव्यों के माध्यम से बताया गया है। इन्हीं ग्रंथों की टिप्पणियों की बदौलत हम आज कण्वाश्रम के विषय में शुद्ध विषयवस्तु को जान पा रहे हैं। कुछ चुने हुए ज्ञात वक्तव्यों को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है जो ऋषि भूमि कण्वाश्रम के ऐतिहासिक वजूद को सार्थकता प्रदान करता है।

प्राचीन कालखण्ड़ में कण्वाश्रम का आध्यात्मिक व धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान था। यही कारण था कि शिवालिक की तलहटी पर मालिनी नदी के तट पर स्थित कण्वाश्रम का स्थान बद्रीनाथ व केदारनाथ के समान माना गया। यह इसकी विश्वसनीयता ही थी कि पुराणों में इस विषय में वर्णित है:

तत्ः कण्वाश्रम गत्वा बद्रीनाथ क्षेत्र के तत्ः ।
तेपेषु सर्वेषु स्नानचैव यथा विधि ॥
तत्ः केदार भवनमृगच्छे पापानु पतये केदारनाथ ।
शस भमूजय गृहतयाज्ञा तत् :
सिद्ध कार्य बद्रीकेशाय दर्शनम शुभदायक ॥

अर्थात : सभी मनुष्यों को बद्रीनाथ क्षेत्र में प्रवेश करने से पूर्व कण्वाश्रम में जाकर वहाँ विधि पूर्वक स्नान कर केदारनाथ जाना चाहिए तथा वहाँ दर्शन करने के उपरान्त बद्रीनाथ के दर्शन करने चाहिए।

चक्रवर्ती सम्राट राजा भरत की इस पुण्य जन्मस्थली कण्वाश्रम जो कि मालिनी के तट पर स्थित है का वर्णन भारत के प्राचीन ग्रन्थों, पुराणों, महर्षि व्यास द्वारा रचित महाभारत तथा महाकवि कालीदास की रचनाओं में जीवन्त मिलता है। स्कंदपुराण के केदारखण्ड के 57 वें अध्याय में कण्वाश्रम का वर्णन इस प्रकार दिया गया है :

कण्वाश्रम समारमभ यावननंद गिरिभवेत।
तावत क्षेत्र परमं मुक्ति-मुक्ति परदायकः ॥
कणवो नाम महातेज महर्षि लोक विश्रुतः ।
तस्या श्रम पदे भगवत रमापतिम् ॥

अर्थात : जो कण्वाश्रम यहाँ से नन्दगिरि पर्वत तक विस्तृत है वह एक परम पुण्य स्थान है तथा भक्ति , योग तथा मोक्ष का केन्द्र है। वहाँ सम्पूर्ण लोक में विख्यात महातेजस्वी कण्व ऋषि का आश्रम है तथा जहाँ अपना शीष नमन कर संपूर्ण सुख और शांति प्राप्त होती है।।

इसके अतिरिक्त इस देश के और विश्व के सबसे विशाल तथा प्राचीन ग्रन्थ “महाभारत” में भी कण्वाश्रम तथा मालिनी का कई जगह वर्णन किया गया है :

प्रस्थे हिमवतो रम्ये मालिनीममितो नदीम् । जातमुत्सृज्यन्त गर्भ मेनका मलिनिमनुः ॥

अर्थात : अत्यंत ही सुंदर हिमवत के अंतिम प्रदेश है जहाँ कि पवित्र मालिनी नदी के तट पर मालिनी अनुस्वरूप मेनका के गर्भ से उत्पन्न शकुंतला ने एक शिशु को जन्म दिया है।

महाकवि कालीदास ने अपने महाकाव्य “अभिज्ञान शाकुन्तलम्” में किये चित्रण से यह तो स्पष्ट कर दिया कि कण्वाश्रम उत्तराखण्ड में था। नाटक के प्रथम अंक में दुष्यन्त का सारथी राजा से कहता है कि :

“उद्धातनी भूमिरितिमयारशिमसयमनादरथस्य मंदीकृती वेगः”

महाराज ऊँची – नीची भूमि आने के कारण रास खींचने के कारण रथ की गति मंद हो गयी है । सम्भवतः राजा दुष्यन्त का रथ समतल भूमि से पहाड़ों के समीप पहुँच गया होगा । तत् पश्चात महाराज दुष्यन्त को आश्रम के निवासी मालिनी नदी के किनारे लकडी जमा करते मिलते हैं। पूछने पर वे कहते हैं कि मालिनी नदी के तट पर कण्व ऋषि का आश्रम दिखाई देता है।”

“अनुमालिनीतीरे आश्रमों दृष्यते “

विष्णु पुराण में हमें भरत के संबंध भारतवासी होने के विषय में ऐसा वर्णन मिलता है :

“उत्तरं यत् समुदस्य, हेमाद्रेश्वैव दक्षिणम।
वर्षम् तद् भारतम् नाम, भारती यत्र सन्तति॥ “

अर्थात: उत्तर में हिम से ढके पर्वतों के नीचे और महासागर के ऊपर जो भू-भाग है उसमें भरत के वंशज निवास करते हैं।

पुण्य भूमि भारत के इस विशाल भूखण्ड को अपनी शक्ति व शौर्य से एकीकृत करके एक महान राज्य की स्थापना कर राजा भरत ने अपनी चक्रवर्ती होने का परिचय दिया। दुष्यन्त तथा शकुन्तला के पाणिग्रहण से जन्मे भरत का जन्म “कण्वाश्रम” में हुआ। बाल्यकाल से ही बालक भरत ने अपनी प्रतिभा से सब को प्रभावित किया। बचपन से ही यह बालक वीर व बलवान था। बालक भरत की वीरता का बोध इस बात से बखूबी हो जाता है कि बचपन में भरत शेरों के साथ खेलता था। शेरों को पेड़ों में बाँध उनके मुँह में हाथ ड़ालकर उनके दाँत गिनते हुए तमाम चित्र व मूर्तियाँ अनायास ही नजर आ जाती है। इस कारण आश्रम वासियों ने उसका नाम सर्वदमन रख दिया।

“प्रस्थे हिमवतो रम्ये मालिनीमामितो नदीम्।
जातमुतसृज्यनतं गर्भ मेनका मलिनिमनुः ॥
अस्तवयं सर्वदमनः सर्वहि दमयत्सौ
सः सर्व दमनों नाथ कुमार सम्पदधतः ॥

अर्थात : अत्यन्त सुन्दर हिमवत के अन्तिम प्रदेश में मालिनी नदी के तट पर मालिनी के अनुरूप मेनका के गर्भ से उत्पन्न शकुन्तला ने एक शिशु को जन्म दिया है। क्योंकि ये बालक सब का दमन करता है इसलिए आश्रम वासियों ने उसका नाम सर्वदमन रखा है।

साथ ही अगर बात करें तो राजा चन्द्र गुप्त मौर्य के दरबार मे ग्रीक दूत मेगस्थनीज़ जिसने कई वर्ष भारत में बिताए ने अपने अनुभव के आधार पर एक पुस्तक लिखी जिस का नाम “Indika” था। इस पुस्तक को पढ़ने वाले कुछ ग्रीक लेखकों ने लिखा है कि “Indika” मे कण्वाश्रम का वर्णन किया गया है। इस के अलावा Alexender Cunninghum जो कि अंग्रेज़ों के काल मे भारतीय पुरातत्व विभाग के मुखिया थे ने भी अपनी १८६५ में लिखी गई एक रिपोर्ट में लिखा है कि जिस नदी का ग्रीक दूत मेगस्थनीज़ ने अपनी पुस्तक मे सम्बोधन किया है वो मालिनी नदी ही है, जो गढवाल मे बहती है और जिस के तट पर शाकुनतला बड़ी हुई।।

कालिदास | Kalidas

जिस महाकवि की रचनाओं ने भरत जन्मभूमि को एक नई पहचान दी उनके विषय में थोड़ा जानना निरर्थक न होगा। कविकुल गुरु महाकवि कालिदास की गणना भारत के ही नहीं वरन् संसार के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकारों में की जाती है। उन्होंने नाट्य, महाकाव्य तथा गीतिकाव्य के क्षेत्र में अपनी अदभुत रचनाशक्ति का प्रदर्शन कर अपनी एक अलग ही पहचान बनाई। कालिदास विश्ववन्द्य कवि हैं। उनकी कविता के स्वर देशकाल की परिधि को लाँघ कर सार्वभौम बन कर गूंजते रहे हैं। इसके साथ ही वे इस देश की धरती से गहरे अनुराग को पूरी संवेदना के साथ व्यक्त करने वाले कवियों में भी अनन्य हैं। जिस कृति के कारण कालिदास को सर्वाधिक प्रसिद्धि मिली, वह है उनका नाटक ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम’ जिसका विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। उनके दूसरे नाटक ‘विक्रमोर्वशीय’ तथा ‘मालविकाग्निमित्र’ भी उत्कृष्ट नाट्य साहित्य के उदाहरण हैं। उनके केवल दो महाकाव्य उपलब्ध हैं – ‘रघुवंश’ और ‘कुमारसंभव’ पर वे ही उनकी कीर्ति पताका फहराने के लिए पर्याप्त हैं।
महाकवि कालिदास कब हुए और कितने हुए इस पर विवाद होता रहा है। विद्वानों के अनेक मत हैं। 150 वर्ष ईसा पूर्व से 450 ईस्वी तक कालिदास हुए होंगे ऐसा माना जाता है। नये अनुसंधान से ज्ञात हुआ है कि इनका काल गुप्त काल रहा होगा।

कालिदास संस्कृत भाषा के सबसे महान् कवि और नाटककार थे। कालिदास ने भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शन को आधार बनाकर रचनाएं की। इन सब एतिहासिक तथ्यों के अलावा कालीदास ने जिस तरह कण्वाश्रम की अदृष्ट और विलुप्त होती हुई पहचान को एक बार फिर उजागर कर सबके सम्मुख एक कलाकृति के रूप में प्रस्तुत किया व कण्वाश्रम को विश्व पटल पर ला खड़ा किया, इसके लिए इस भारतवर्ष का प्रत्येक नागरिक उनका ऋणी है। समय की विभीषिका ने कण्वाश्रम के भौतिक अस्तित्व को तो समाप्त कर दिया पर अपनी लेखनी से हजारों वर्ष बाद भी कण्वआश्रम के सजीव चित्रण से महाकवि कालीदास, जिन्हें उत्तराखण्ड की भौगोलिक परिस्थितियों का सम्पूर्ण ज्ञान था, ने अपनी अतिंम कृति “अभिज्ञान शाकुन्तलम्” में समस्त कण्वाश्रम, मालिनी तथा उससे जुड़े सभी पात्रों को अमर बना दिया। मालिनी नदी के तट पर स्थित कण्वाश्रम, मेनका और विश्वामित्र की पुत्री शकुन्तला, राजा दुष्यन्त से शकुन्तला का गन्धर्व विवाह, उनके पुत्र भरत का जन्म इत्यादि, सभी को एक आलौकिक रूप देकर अपनी रचना में प्रस्तुत किया।

रूस में घटी घटना व कण्वाश्रम की खोज |
The incident happened in Russia and the discovery of Kanvashram

यह इस पुण्य भूमि का तप व ऋषियों का आशीर्वाद ही था कि जिस ऐतिहासिक स्थल कण्वाश्रम को भारत, विदेशी आक्रांताओं की गुलामी के कारण भूल चुका था व पश्चिमी सभ्यता के अनुसरण की होड़ में अपने वैभवशाली इतिहास के प्रति छाई नीरसता के कारण जो भरत जन्मभूमि काल का ग्रास बन दिनोंदिन भूतकाल के गर्त में समा रही थी उस भूमि को एक नया जन्म रूस की धरती में मिला। आज अगर वर्तमान में जो थोड़ा बहुत जानकारी कण्वाश्रम के बारे में सभी को उपलब्ध है उसके श्रेय का कोई हकदार है तो वो हैं रूस देश के वासी। सुनने में शायद अटपटा सा लगे पर ये बात कुछ सुनी सुनाई सी है।

Nehru
प्रतीकात्मक चित्र

हो सकता है कि इसमें कुछ सच्चाई हो। कई सौ सालों की गुलामी के बाद जब भारत राष्ट्र आजादी की सांस ले रहा था तो इस नए स्वतंत्र राष्ट्र के प्रथम प्रधानमंत्री सन् 1955 में विदेश यात्रा में रूस गये। वहाँ एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में अन्य कृतियों के अलावा रूसी कलाकारों ने “अभिज्ञान शाकुन्तलम्” पर आधारित एक बैले नृत्य प्रस्तुत किया। सांस्कृतिक कार्यक्रम के उपरान्त अपने देश में आये हुए विदेशी मेहमान से बातचीत में एक पत्रकार ने अपने अतिथि से पूछा कि “ अभिज्ञान शाकुन्तलम् ” में वर्णित “कण्वाश्रम” कहाँ है? पश्चिमी सभ्यता में रंगे हमारे प्रधानमंत्री को इस सम्बन्ध में कोई जानकारी नही थी। भारत लौटने के उपरान्त उनके द्वारा उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री सम्पूर्णानन्द को कण्वाश्रम को खोजने का दायित्व सौंपा गया। विद्वानों और इतिहासकारों से सम्पर्क किया गया तथा इस विषय पर चर्चा की गयी। प्राचीन ग्रन्थों, पुराणों, ऐतिहासिक तथ्य, पुरातत्व परिस्थितिकीय प्रमाणों तथा विद्वानों की तत्पर शोध के आधार पर निर्विवाद रूप से ये प्रमाणित हुआ कि उत्तर प्रदेश के जिला पौडी गढ़वाल में कोटद्वार शहर से करीब 12 किमी ० पश्चिम दिशा की तरफ बहती हुई मालिनी नदी के तट पर ही महाकवि कालीदास द्वारा अपनी कृति में वर्णित “कण्वाश्रम” स्थित रहा होगा।

अन्ततः उत्तर प्रदेश और केन्द्र सरकार की सहमति से उत्तर प्रदेश सरकार के तत्कालीन वन मंत्री जगमोहन सिंह नेगी के कर कमलों द्वारा मालिनी नदी के पूर्वी तट पर चौकीघाट नामक स्थान पर एक सांकेतिक स्मारक का शिलान्यास पौष शुक्ल 1 प्रतिपाद संवत 2012 तदनुसार 1956 को हुआ। नदी के किनारे एक उठे टीले नुमा क्षेत्र पर इस स्मारक का निर्माण किया गया। स्मारक में संगमरमर की पाँच मूर्तियाँ स्थापित की गयी। ये थी महर्षि कण्व, महर्षि कश्यप, दुष्यन्त, शकुन्तला तथा भरत जो एक सिंह का मुख खोलकर उसके दांत गिनता हुआ दर्शाया गया था। दुःख होता है कि चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्म स्थली कण्वाश्रम को राष्ट्रीय स्मारक के रूप में विकसित करने की जो रुचि 1955 में भारत सरकार तथा उत्तर प्रदेश सरकार ने दिखाई वह रूचि फिर कभी किसी सरकार ने नहीं दिखाई। जिसकी वजह से आज भी कण्वाश्रम अपने विकास की राह देख रहा है।

कण्वाश्रम में आयोजित ‘बसंत पंचमी’ का मेला |
Fair of ‘Basant Panchami’ organized in Kanvashram

The famous Basant Panchami fair organizing every year at Kanvashram.

स्मारक के शिलान्यास के बाद क्षेत्रीय ग्रामीणों द्वारा एक समिति का गठन किया गया और उसे “कण्वाश्रम विकास समिति” का नाम दिया गया। इस शिलान्यास के फलस्वरूप इस क्षेत्र में एक नई परम्पराओं का जन्म हुआ जिस के तहत हर साल बसन्त पंचमी में मालिनी नदी के तट पर चौकीघाट में मेले का आयोजन होने लगा। ये मेला कण्वाश्रम विकास समिति की देख – रेख में आयोजित किया जाने लगा। शुरू के वर्षो में इस क्षेत्र की जनसंख्या कम ही थी तो भीड़ भाड़ भी ज्यादा नही होती थी। ग्रामीण क्षेत्र होने के कारण दुकानें भी कम ही लगती थी। पर इधर – उधर से कुछ दुकानदार कुछ छोटी – मोटी चीजें लेकर आ जाते थे, जिन्हे महिलायें विशेषकर बड़े चाव से खरीदती थी। वैसे भी इस क्षेत्र में यातायात के साधनों के अभाव में लोगों का बाहर आना – जाना कम ही होता था और मनोरंजन के भी सीमित साधन होने के फलस्वरूप महिलायें मेले में अपनी जरूरत की छोटी – मोटी चीजें खरीदने जरूर आती थी। खान – पान का सामान भी बिकता था विशेषकर जलेबी। इस मेले में इतनी जलेबी बिकती है कि “जलेबी मेला” कहने में भी कोई परेशानी नही होनी चाहिए।

कुछ वर्षों तक ऐसा ही चलता रहा पर 1964 से जिला परिषद द्वारा इस मेले को मान्यता दिये जाने के उपरान्त विभिन्न विभागों द्वारा मेले में अपने स्टॉल लगाने शुरू कर दिये। इस माध्यम से विभाग द्वारा ग्रामीणों को विभिन्न विषयों पर जानकारी दी जाने लगी। कृषि, पशुपालन, उद्यान तथा अन्य विभागों द्वारा ग्रामीणों के बीच प्रतियोगिताओं का आयोजन भी किया जाने लगा। इसके तहत सबसे उत्तम गाय / बछिया , सबसे बड़ा या अच्छा फल या सब्जी उगाने वाले को पुरस्कृत किया जाने लगा। मेला करीब पाँच दिन चलता था। मेले की अवधि तथा उसका स्वरूप कण्वाश्रम विकास समिति, पर्यटन विभाग तथा प्रशासन के साथ मिलकर तय करती थी। मेले में इसके अलावा क्षेत्र के स्कूलों के बच्चों द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम भी प्रस्तुत किया जाने लगा। मेला जहाँ लोगों के लिए एक मनोरंजन का साधन था वहाँ व्यापारियों के लिए धन अर्जन का माध्यम भी । मेले में दुकानें नदी के पाट पर लगती थी और आज भी वहीं लगती है। बसंत पंचमी तक मालिनी में पानी की मात्रा कम हो जाती है तथा ज्यादातर पानी नहरों के माध्यम से सिंचाई के लिए उपयोग में चला जाता है। पहले सांस्कृतिक कार्यक्रम विभिन्न स्कूल के बच्चों द्वारा प्रस्तुत किये जाते थे ।

कण्वाश्रम में खुदाई व मृदा अपरदन से प्राप्त हुए पुरातात्विक अवशेष |
Archaeological remains found from excavation and soil erosion in Kanvashram

प्राकृतिक विभीषिका 1991 में इस क्षेत्र में मूसलाधार बारिश हुई जिससे कण्वाश्रम स्मारक और मालिनी के तट के समीप पानी की मोटी धारायें जो पहाड़ से बह कर आयी, ने धरती की ऊपरी सतह की मिट्टी को अपने साथ बहा कर ले गई। जिस के कारण धारती के नीचे हजारों वर्षों से दबे शिलालेख / भग्नावशेष तथा मूर्तियाँ उभर कर बाहर आ गई। जिस जगह ये शिलालेख प्रकट हुए है ऐसा प्रतीत होता है कि धरती के नीचे वहाँ भवन के और अवशेष भी मौजूद हैं। जब सब की नजर इन शिलाओं पर पड़ी तो सब का विश्वास और दृढ़ हो गया कि इस क्षेत्र में भारत की पौराणिक सभ्यता रही होगी। इन शिलाओं का अध्ययन करने गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर से कुछ अधिकारियों ने कण्वाश्रम का दौरा किया तथा इन में से कुछ शिलालेखों को वे अपने साथ श्रीनगर ले गये । विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट के अनुसार ये शिलालेख तथा स्तम्भ 10 वीं से 12 वीं सदी के अनुमानित हैं। इसके बाद उनके द्वारा या सरकार या किसी और शोधकर्ता के द्वारा कोई उत्खनन कार्य इस क्षेत्र में नहीं किया गया। जुलाई 2012 में एक बार फिर अत्याधिक वर्षा होने के कारण उसी क्षेत्र में मिट्टी के बह जाने से कई और शिलालेख और स्तम्भ धरती से उभर कर बाहर आ गये। पर इस बार समिति ने इस होनी को संज्ञान में लेते हुए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के दिल्ली स्थित मुख्यालय को चित्रों सहित ई – मेल द्वारा सूचित किया। विभाग के मुखिया ने तुरन्त कार्यवाही करते हुए अपने क्षेत्रीय देहरादून स्थित कार्यलय को उक्त स्थान का निरीक्षण करने को कहा। सितम्बर 2012 में देहरादुन पुरातत्व विभाग का तीन सदस्यों का एक दल कण्वाश्रम पहुँचा और उन्होने उक्त क्षेत्र का बारीकी से निरीक्षण किया।

कण्वाश्रम में अतिथि गृह व होटल सुविधा |
Guest House & Hotel Facility in Kanvashram

भारत के प्राचीन इतिहास में रूचि रखने वाले पर्यटकों के लगातार आवागमन को देखते हुए यहाँ सरकार ने गढ़वाल मण्डल विकास निगम गेस्ट हाउस स्थापित किया है। साथ ही अच्छी सुविधाओं के साथ होटल्स भी उपलब्ध हैं।

मुख्य शहरों से कण्वाश्रम की दूरी

नई दिल्ली से - 224 किमी
देहरादून से    - 102 किमी
पौड़ी से         - 118 किमी
हरिद्वार से   - 50.9 किमी
ऋषिकेश से   - 76.8 किमी
हल्द्वानी से  - 197 किमी

कण्वाश्रम कैसे पहुँचे |
How to reach Kanvashram?

उत्तराखण्ड के दक्षिणी छोर पर पौड़ी जिले में मालिनी नदी के तट पर स्थित ऐतिहासिक स्थल कण्वाश्रम आप बस, ट्रेन, फ्लाइट व अपने निजी वाहन से पहुँच सकते हैं। विभिन्न माध्यमों से आप कण्वाश्रम कैसे पहुँच सकते हैं, यह नीचे विस्तार से बताया जा रहा है

हवाई जहाज से | By Air

अगर आप हवाई यात्रा करके कण्वाश्रम पहुँचना चाहते हैं तो कोटद्वार से निकटतम हवाई अड्डा जौलीग्रांट (देहरादून) है। जो कोटद्वार से लगभग 108 किमी की दूरी पर स्थित है। जौलीग्रांट हवाई अड्डा से आप रिक्शा या बस से भनियावाला या ड़ोईवाला पहुँच सकते हैं जहाँ से आपको कोटद्वार जाने के लिए सीधे बस की सुविधा मिल जाएगी और कोटद्वार से कण्वाश्रम, टैक्सी वगैरह की सुविधा लेकर आप आसानी से पहुँच सकते हैं।

रेल से | By train

यदि आप कोटद्वार में स्थित कण्वाश्रम की यात्रा रेलगाड़ी के माध्यम से करना चाहते हैं तो आपको दिल्ली व नजीबाबाद से सीधी रेल कोटद्वार के लिए मिल जाऐगी। कोटद्वार रेलवे स्टेशन से आप टैक्सी या आटो रिक्शा पकड़कर कण्वाश्रम जो कि कोटद्वार शहर से 11 किमी की दूरी पर स्थित है आसानी से पहुँच सकते हैं।

बस से | By bus

बस से सफर करने वाले यात्रियों को दिल्ली, देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी, नजीबाबाद आदि स्थानों से सीधा कोटद्वार के लिए बस मिल जाएगी और कोटद्वार से टैक्सी वगैरह की सुविधा लेकर कण्वाश्रम आसानी से पहुँच सकते हैं।

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संदर्भ

– कण्वाश्रम का संक्षिप्त परिचय (कुवंर सिंह नेगी कर्मठ)
कण्वाश्रम  (ले. कमाण्ड़र वीरेन्द्र सिंह रावत सेवानिवृत्त भारतीय नौसेना)
, http://kanvashram.org/

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