उत्तराखण्ड के राज्य प्रतीक | State symbol of Uttarakhand

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भारत गणराज्य में जिस तरह राष्ट्रीय अस्मिता के अपने प्रतीक चिन्ह है, उसी तरह राष्ट्रीय प्रतीकों की भाँति ही प्रत्येक राज्य अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति एवं वन तथा वन्य प्राणी-सम्पदा के परिप्रेक्ष्य में राज्य प्रतीकों का भी निर्धारण करता है। 9 नवम्बर 2000 को 13 हिमालयी राज्यों को काटकर भारतीय गणतंत्र का 27वाँ और हिमालयी राज्य के रूप में 11वें राज्य के रूप में ‘उत्तरांचल’ राज्य का गठन किया गया । 1 जनवरी 2007 को ‘उत्तरांचल’ राज्य का नाम बदलकर उत्तराखण्ड कर दिया गया। राज्य गठन के पश्चात सन् 2001 में शासन द्वारा राज्य प्रतीकों का निर्धारण किया गया। उत्तराखण्ड के राज्य प्रतीक (State symbol of Uttarakhand), इनमें राज्य-चिह्न के साथ-साथ राज्य-पशु के रूप में कस्तूरी मृग (Musk Deer), राज्य-पक्षी के रूप में हिमालयी मोर (Monal Peasant), राज्य-वृक्ष के रूप में बुरांस (Rhododendron) तथा राज्यपुष्प-ब्रह्मकमल (Brahmakamal) निर्धारित किए गए। ये सभी प्रतीक हमारे राज्य की सम्पदा हैं तथा इनका संरक्षण एवं प्रजाति संवर्द्धन राज्य सरकार के साथ-साथ सामान्य नागरिक का भी दायित्व है।

राज्य चिह्न (State Insignia) | State symbol of Uttarakhand

State symbol of Uttarakhand

उत्तराखण्ड राज्य के प्रतीक चिह्न (State symbol of Uttarakhand) में एक गोलाकार आकृति है, जिसमें तीन पर्वतों की श्रृंखला, उसके मध्य में सम्राट अशोक की लाट, जिसके नीचे मुण्डकोपनिषद् से लिया गया वाक्य “सत्यमेव जयते” अंकित है तथा पाद – प्रदेश को आबद्ध किए हुए गंगा की 4 लहरों को दर्शाया गया है। यह प्रतीक चिह्न राज्य सरकार के सभी अभिलेखों में सम्मान के साथ प्रयुक्त किया जाता है।

राज्य पशु – कस्तूरी मृग | State Animal – Musk Deer | State symbol of Uttarakhand

State symbol of Uttarakhand, कस्तूरी मृग (Musk Deer),

उत्तराखण्ड के राज्य प्रतीक (State symbol of Uttarakhand) में, उत्तराखण्ड का राज्य पशु कस्तूरी मृग (Musk Deer) है जो हिमालयन मस्क डियर के नाम से विख्यात है। कस्तूरी मृग, उत्तराखण्ड तथा देश के अन्य हिमालयी प्रदेशों में ऊँची वनाच्छादित पर्वत शृंखलाओं पर 3600 से 4400 मीटर की ऊँचाई के मध्य पाया जाता है। यह एक दुर्लभ प्राणी है तथा मृग प्रजाति का होने पर भी सामान्य मृगों से इसका जीवनचक्र, खानपान, शारीरिक रचना तथा व्यवहार भी अपेक्षाकृत भिन्न हैं। वस्तुतः यह मृगों की आदिम जाति का प्राणी है। कस्तूरी मृग की मुख्यतया चार प्रजातियाँ होती हैं, जो रूस, चीन, नेपाल व भारत के मध्य हिमालयी क्षेत्रों, यथा-भ्यूँडार (फूलों की घाटी), हर्षिल, केदारनाथ आदि क्षेत्रों में पाई जाती हैं। कस्तूरी मृग को वैज्ञानिक जगत में ‘मास्कस काइसोगाॅस्टर’ Moschus chrysogaster के नाम से जाना जाता है।

कस्तूरी मृग का रंग भूरा होता है तथा उस पर काले-पीले धब्बे होते हैं। इसका कद सामान्य मृगों से काफी छोटा होता है। नर तथा मादा मृग का रूप रंग व कद समान होता है। इसकी ऊँचाई लगभग 20 इंच और वजन लगभग 10 से 20 किलोग्राम होता है। इनके घ्राण और श्रवण शक्ति बहुत तेज होती है। इनकी औसत आयु 20 वर्ष होती है। अंतर केवल नर-मृग में पाए जाने वाले दो नुकीले दाँतों का होता है। मुँह से बाहर निकले हुए ये दाँत पीछे की ओर झुके होते हैं। नर इन दाँतों का उपयोग आत्मरक्षा व विशेष प्रकार की जड़ी-बूटियों को खोदने में करता है। नर की पूँछ होती है, किंतु इस पर बाल नहीं होते हैं, जबकि त्वचा पर घने बालों की पर्त होती है। मादा मृग की गर्भधारण अवधी 6 माह होती है और एक बार में प्रायः एक ही मृग का जन्म होता है।

कस्तूरी केवल नर मृग में ही पाई जाती है, जो एक साल की उम्र के बाद बननी प्रारंभ होती है तथा तीन साल की उम्र पूरी होने पर ही प्राप्त की जा सकती है। एक बार प्राप्त करने के पुनः तीन साल बाद ही कस्तूरी प्राप्त हो सकती है। कस्तूरी, नर के पेट के निचले भाग में जननांगों के समीप एक विशेष ग्रंथि से स्रावित होती है। यह स्नावित पदार्थ उदर की चमड़ी के नीचे स्थित एक थैलीनुमा आकृति में एकत्रित होता रहता है। मृग को मार कर इस थैली से ही कस्तूरी प्राप्त की जाती है। एक मृग में सामान्यतया 30 से 45 ग्राम तक कस्तूरी पाई जाती है। कस्तूरी एक जटिल प्राकृतिक रसायन है, जिसमें अद्वितीय सुगंध होती है। इसका उपयोग सुगंधित सामाग्रियों को बनाने के साथ औषधि उद्योग में में भी किया जाता है। कस्तूरी दमा, मिरगी, ब्राँकायटिस, निमोनिया, टायफायड और हृदय रोग संबंधी औषधियों के निर्माण में प्रयोग की जाती है।

क्यों खतरे में है कस्तूरी मृग की प्रजाति | Why musk deer species are in danger

कस्तूरी मृग से प्राप्त होने वाली कस्तूरी के अत्यधिक व्यापारिक महत्व होने के कारण इनका अवैध शिकार सबसे अधिक होता है। प्राय: देखा गया है कि शिकारियों द्वारा नर मृगों के वध के कारण इस प्राणी के लिंगानुपात का संतुलन बिगड़ता जा रहा है। स्वभाव से भयभीत रहने वाला यह जंतु तीव्र घ्राणशक्ति के कारण संकट को भाँप तो लेता है, लेकिन थोड़ी-थोड़ी देर बाद पीछे मुड़कर देखने के कारण शिकारी की गोली का शिकार हो जाता है। जिस कारण इनकी संख्या और लिंग अनुपात में तेजी से गिरावट आ रही है।

कस्तूरी मृग का मुख्य भोजन झाड़ीनुमा केदारपाती है, इसके डण्ठल में खुशबू होने के कारण शिकारी कस्तूरी मृग के साथ-साथ परफ्यूम तथा धूप बनाने के लिए इस पौधे का भी दोहन करते हैं जिससे कस्तूरी मृग के भोजन पर भी अस्तित्व का संकट मंडराने लगा है।

सामान्यतया एक किलो कस्तूरी प्राप्त करने के लिए 80 मृगों की हत्या की जाती है। यद्यपि विश्व में इस प्रकार के अनुसंधान हो रहे हैं कि मृग को मारे बिना कस्तूरी-कोष में ट्यूब डालकर कस्तूरी प्राप्त की जा सके। चीन में इस प्रक्रिया से मृगों की संख्या में वृद्धि हो रही है।

एक ग्राम कस्तूरी की कीमत अंतर्राष्ट्रीय बाजार में 65 डालर तथा भारत में 10,000 रुपये तक है। ईश्वर द्वारा प्रदान की गई अनमोल धरोहर के कारण यह सुंदर प्राणी लगातार होते शिकार के कारण दिनोंदिन कम होता जा रहा है।

कस्तूरी मृग के संरक्षण के प्रयास | Efforts to conserve musk deer

State symbol of Uttarakhand, कस्तूरी मृग (Musk Deer),

एक सर्वेक्षण के अनुसार सन् 1970 में कस्तूरी मृग क्षेत्र में 0-4 व अधिकतम 3-6 प्रति वर्ग किलोमीटर कस्तूरी मृगों की संख्या थी, जबकि वर्तमान में इनकी संख्या 0-1 से 0-2.8 प्रतिवर्ग किलोमीटर ही रह गई है। सर्वप्रथम 1952 में बाघों के संरक्षण के साथ ही कस्तूरी मृग को संरक्षित जीव की श्रेणी में रखा गया। तत्पश्चात उत्तर प्रदेश शासन ने 1974 में कस्तूरी मृग अनुसंधान केंद्र चमोली तथा पिथौरागढ़ में खोले, जिसके अंतर्गत पिथौरागढ़ में 1977 में महरूड़ी, चमोली में 1982 में काँचुला खर्क एवं सन् 1982 में ही यूनेस्को की सहायता से जोशीमठ में ‘नंदादेवी राष्ट्रीय पार्क वर्ल्ड हेरिटेज’ के माध्यम से कस्तूरी मृग प्रजनन केंद्र खोले गए। इसके अलावा डीडीहाट, धारचूला व मुनस्यारी तहसीलों के कुछ क्षेत्रों को वर्ष 1986 ‘अस्कोट कस्तूरी मृग – विहार घोषित किया गया है।

राज्य की वन्यजीव गणना 2005 के अनुसार कस्तूरी मृगों की संख्या वर्ष 2003 में 274 थी जो वर्ष 2005 में बढ़कर 279 हो गई।

राज्य पक्षी – मोनाल पीजेन्ट | State Bird – Monal Peasant | State symbol of Uttarakhand

State symbol of Uttarakhand, मोनाल (Monal Pheasant),

उत्तराखण्ड के राज्य प्रतीक (State symbol of Uttarakhand) में, उत्तराखण्ड राज्य का राज्य पक्षी मोनाल है। हिमालय का मयूर नाम से प्रसिद्ध मोनाल प्रदेश के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में 2500 मीटर से 5000 मीटर की ऊँचाई पर पाया जाता है। मोनाल की गणना विश्व के सुंदरतम पक्षियों में की जाती है। उत्तराखण्ड के अतिरिक्त समान स्थलाकृतिक रचना वाले निकटवर्ती राज्य हिमाचल प्रदेश के राज्य पक्षी के साथ-साथ पड़ोसी देश नेपाल का भी यह राष्ट्रीय पक्षी है। मोर जैसी आकृति होने के कारण इसे हिमालयी मोर कहते हैं। नर मोनाल (Monal Peasant) के सिर पर मोर के समान ही कलगी होती है तथा यह मादा मोनाल से सुंदर होता है । वैज्ञानिक जगत में इसे लोफोफोरस इंपीजेनस (Lophophorus impejanus) कहा जाता है। इपेलेस, स्केलेटरी, ल्यूरी, तथा ल्यूफोफोरसएन्स आदि इसकी चार प्रजातियाँ हैं।

माँस व खाल के लिए मोनाल के बढ़ते शिकार के कारण इसकी संख्या दिनोंदिन घटती ही जा रही है जो कि एक चिंता का विषय है। दुर्लभ प्रजाति के इस पक्षी को उत्तर प्रदेश शासन द्वारा सन् 1972 के वन्य जीव संरक्षण अधिनियम द्वारा संरक्षित किया गया था तथा इसके शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया था।

उत्तराखण्ड, कश्मीर, असम तथा नेपाल में स्थानीय भाषा में मन्याल या मुनाल के नाम से जाना जाने वाला नर मोनाल लगभग डेढ मीटर ऊँचाई का होता है, जिसका रंग सामान्य रूप से हरा, नीला, भूरा या गुलाबी होता है। हिमालय के हिमाच्छादित उच्चस्थ क्षेत्रों में बर्फ पड़ने पर मोनाल नीचे घाटियों में उतर जाते हैं। इनमें प्रजनन क्रिया वर्ष में दो बार होती है। यह पक्षी अपना घोंसला नहीं बनाता, बल्कि बर्फ की परतों के मध्य ही एक बार में चार से अधिक अंडे देता है। हिमालयी क्षेत्रों में पाई जाने वाली जड़ी – बूटियों एवं वृक्षों के तनों में लगी हुई काई, वनस्पति, कीड़े-मकोड़े, आलू आदि से यह अपना उदर पोषण करता है।

केंद्र सरकार की वन्य प्राणी संरक्षण नीति का अनुसरण करते हुए प्रदेश शासन भी वन्यजीव संरक्षण अधिनियम -1972 का यथावत पालन करते हुए मोनाल के शिकार पर प्रतिबंध लगाए हुए है। साथ ही अर्थदंड एवं सजा का भी प्रावधान रखा गया है।

राज्य वृक्ष – बुराँस | State Tree – Burans | State symbol of Uttarakhand

State symbol of Uttarakhand, बुराँस (Burans),

उत्तराखण्ड के राज्य प्रतीक (State symbol of Uttarakhand) में, राज्य वृक्ष – बुराँस है। बसन्त ऋतु में हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड की सबसे ज्यादा आकर्षित करती है वो है हरे-भरे पेड़ों में लगते खूबसूरत चटक लाल रंग के बुँरास (Burans) के फूल। सड़क मार्ग से पहाड़ों की यात्रा करने वाले यात्रियों को अक्सर दीदार हो जाता है इन प्रकृति के सुंदर उपहारों का। मन जिन्हें देखकर प्रसन्न हो जाता है वहीं साथ ही सारी थकान व तनाव इन्हें देख छू मन्तर हो जाता है। यही कारण है कि प्रदेश के मध्य हिमालयी समढाल एवं निम्न शिखर क्षेत्रों में 1500 मीटर से 4000 मीटर की ऊँचाई तक पाया जाने वाले व बसन्त के मौसम में अपने रंग-बिरंगे फूलों से देवभूमि उत्तराखण्ड के प्राकृतिक सौंदर्य को और अधिक निखार देने वाले सदाबहार वृक्ष बुराँस को सरकार ने उत्तराखण्ड का राज्य वृक्ष घोषित किया।

वर्षभर हरे रहने वाले सदाबहार वृक्ष बुराँस को वनस्पति विज्ञान की भाषा में रोडोडेन्ड्रान अरबोरियम (Rhododendron Arboreum) कहा जाता है। औषधीय गुणों एवं चटख लाल रंग के पुष्पों के कारण ही बुरांस के वृक्ष का राज्यवृक्ष घोषित किया है। बुराँस के वृक्ष की औसत ऊँचाई 6-8 मीटर तक होती है। निम्न शिखर क्षेत्रों में इसके फूलों का रंग गहरा लाल होता है, जो ऊँचाई बढ़ने के साथ – साथ हल्का होकर 4000 मीटर की ऊँचाई तक लगभग सफेद हो जाता है।

बुराँस के फूलों का खिलने का समय | Bloom time of Rhododendron

State symbol of Uttarakhand, बुराँस (Burans), Rhododendron,

प्रकृति के इस अनुपम उपहार बुराँस के फूलों का खिलने का समय बसंत ऋतु का प्रारंभ है। अप्रैल-मई में बुराँस के लाल-गुलाबी फूलों से सारा जंगल खिल उठता है। बुरांश का फूल मकर सक्रांति के बाद गर्मी बढ़ने के साथ धीरे-धीरे खिलना शुरू होता है और बैसाखी तक पूरा खिल जाता है। उसके बाद गर्मी बढ़ जाने के कारण इसके फूल सूखकर गिरने लगते हैं।

गढ़वाल-कुमाऊँ की गौरवशाली सैन्य परम्परा में बुराँस के फूल को वीरता और शौर्य का भी प्रतीक माना जाता है।

बुराँस विशुद्ध रूप से एक पर्वतीय वृक्ष है जिसे मैदान में नहीं उगाया जा सकता। यह वृक्ष देश के उत्तरी राज्यों, यथा-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश के साथ-साथ उत्तराखण्ड में भी समान अक्षांशों पर पाया जाता है। स्थानीय लोग इसे बुरूंशी कहते हैं। कश्मीर में इसे ‘आर्डवाल’ तथा हिमाचल में ‘बुराशौं’ कहा जाता है। बुरांस के एक वृक्ष पर लगभग एक हजार पुष्प एक साथ खिलते हैं, जिससे वृक्ष तथा वृक्षों से आच्छादित पर्वतश्रेणी का सौंदर्य अत्यंत आकर्षक हो जाता है। कहीं-कहीं तो लगता है, मानो जंगल में वृक्षों पर आग के गोले पिरो दिए गए हों। गढ़वाली लोकगीतों में नवयौवना के मुखमंडल की तुलना बुराँस के फूल से की जाती है –

फ्यूलि का फूल जनि तैंकि नकुड़ी,
ज्यूंदा बुरांस सी तैंकि मुखड़ी।

इसी प्रकार एक कुमाऊँनी लोकगीत में ससुराल से मायके आने की बाट जोहत माँ की व्यथा, अपनी बेटी की प्रतीक्षा में इस प्रकार मुखरित होती है –

पारा भीड़ा बुरूंशी फूलिगे,
मैंजे कुनु मेरि हिरूली अइगे।

(बुराँस के लाल-लाल फूलों से आच्छादित हरे-भरे जंगल को देखकर माँ को लगा कि हरे घाघरे में लाल पिछौड़ा ओढ़कर मेरी लाड़ली मायके आ रही है।)

बुराँस सदाबहार वृक्ष है। इसकी पत्तियाँ चौड़ी होती हैं, इसलिए जब तक यह पेड़ों में रहती हैं तो पर्यावरण की रक्षा करती हैं। जब पीली होकर गिर जाती हैं तो जमीन के कटाव को रोकती हैं। बुराँश जल स्त्रोतों को रिचार्ज करने में सहायक होता है। चीड़ तुलना में इसमें आग कम लगती है।

बुराँस के उपयोगी फायदे | Useful benefits of Rhododendron

अपनी सुंदरता से जिस तरह बुँरास का वृक्ष मनुष्यों के मन को खुश रखता है उसी प्रकार बुराँस के फूल के औषधीय गुण मनुष्य के शरीर को स्वस्थ रखने में अत्यंत उपयोगी हैं। चरक संहिता में बुराँस के औषधीय गुणों का उल्लेख मिलता है। बुराँस के पुष्पों का उपयोग हृदय संबंधी रोगों एवं उच्च रक्तचाप की औषधि एवं रंग बनाने में किया जाता है। इन फूलों से जैली, स्क्वेश तथा चटनी भी बनाई जाती है। प्रकृति प्रेमियों, पर्यटकों एवं शोधकर्ताओं के लिए बुराँस का वृक्ष तथा उसके रक्तवर्णी चटख लाल रंग के पुष्पों का विशेष आकर्षण है।

इसकी लकड़ी से घरेलू उपयोग के लिए बर्तन की आदि बनाए जाते हैं। बुराश के पत्ते की सब्जी बनाई जाती है। इसकी लकड़ी इमारत बनाने के काम में आती है। छाल से दवा बनाई जाती है जो पाचन क्रिया में सहायक होती है। बुराँस वृक्षों की ऊँचाई 20 से 25 फीट होती है। इसकी लकड़ी बहुत मुलायम होती है जिसका ज्यादेतर उपयोग ईंधन के रूप में किया जाता है। इसके पत्ते मोटे होते हैं जिससे खाद बनाया जाता है। बुराँस के अवैध कटान के कारण वन अधिनियम 1974 में इसे संरक्षित वृक्ष घोषित किया है लेकिन इसके बाद भी बुराँस वृक्ष का संरक्षण नहीं हो पा रहा है।

नैनीताल से लगभग 51 किलोमीटर की दूरी एवं समुद्रतल से 2286 मीटर की ऊँचाई पर स्थित खूबसूरत हिल स्टेशन मुक्तेश्वर जो कि फलों के बगीचों एवं देवद्वार के घने जंगलों से घिरा है, के रहने वाले एक स्थानीय युवा संजय नयाल द्वारा बुरांश के फूलों का जूस ऑर्गेनिक तरीके से तैयार किया जा रहा है। असंख्य औषधीय गुणों से संपन्न यह बुरांश का जूस स्वास्थ्य के लिए विशेष लाभदायक सिद्ध हो रहा है। यह बुरांश के औषधीय गुणों का ही कमाल है कि उत्तराखंड राज्य के अंदर बुरांश का जूस बनाकर बेचने का लघु एवं स्वरोजगार अत्यधिक प्रचलन में आ रहा है जिसकी मदद से उत्तराखंड में पलायन में कमी आ रही है एवं उत्तराखंड का युवा स्वरोजगार की ओर अग्रसर हो रहा है। आप बुरांश का जूस नीचे दिए लिंक पर जाकर खरीद भी सकते हैं।

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राज्य पुष्प – ब्रह्मकमल | State Flower – Brahmakamal | State symbol of Uttarakhand
State symbol of Uttarakhand, Brahma Kamal - Saussurea obvallata

उत्तराखण्ड के राज्य प्रतीक (State symbol of Uttarakhand) में, राज्य पुष्प – ब्रह्मकमल है। उत्तराखण्ड को भारत व संपूर्ण विश्व में देवभूमि उपनाम से भी जाना जाता है। इसका कारण है हिमालय पवित्रता व यहाँ कण-कण में दवों का वास। यही कारण है कि उत्तराखण्ड का सरकार ने राज्य पुष्प के रूप में ब्रह्मकमल को घोषित किया है क्योंकि ब्रह्मकमल का उल्लेख वेदों में भी मिलता है। महाभारत के वनपर्व में इसे सौगन्धिक पुष्प कहा गया है। पौराणिक मान्यता है कि इस पुष्प को केदारनाथ स्थित भगवान शिव को अर्पित करने के बाद विशेष प्रसाद के रूप में बाँटा जाता है।

राज्य में 4800 मीटर से 6000 मीटर की ऊँचाई पर हिमरेखा से नीचे असंख्य प्रकार के पुष्प पाए जाते हैं, जिनमें दिव्य-सुगंध वाला पुष्प ब्रह्मकमल सर्वाधिक सुंदर है। पौराणिक भारतीय कथाओं में ब्रह्मकमल का उल्लेख मिलता है। ब्रह्मकमल में बैंगनी रंग के पुष्पगुच्छ होते हैं, जो श्वेत पीत पत्रों के आवृत्त में घिरे रहते हैं। यह हर मौसम में पाया जाता है। वनस्पति विज्ञान की Saussurea obvallata कहा जाता है। उत्तराखण्ड के दुर्गम चट्टानी घास से आच्छादित बुग्यालों में उगने के कारण यह देवपुष्प अथवा ब्रह्मकमल नाम से विभूषित किया है। यों तो विश्वभर में इस पुष्प की 400 से अधिक प्रजातियों का पता लगाया गया है, तथापि राज्य में इस पुष्प की 24 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। पौधे की ऊँचाई सामान्यत: 20 सेंटीमीटर होती है। जबकि पुष्पगुच्छ एक से तीन सेंटीमीटर लंबा होता है।

वर्षाऋतु में यह पुष्प अपने पूर्ण यौवन पर खिलकर समस्त वातावरण को अपनी दिव्य सुगंध से सुवासित कर देता है। दुर्लभ प्रजाति के इस पुष्प को स्थानीय भाषा में ‘कौल पद्म’ भी कहा जाता है। अगस्त-सितंबर के महीनों में जब यह पुष्प अपने पूरे यौवन पर होता है, तभी नंदादेवी (नंदाष्टमी) के पर्व पर इसे देवालयों में अर्पण किया जाता है, साथ ही पूजा-अर्चना के पश्चात इसकी पंखुड़ियाँ, प्रसाद के रूप में वितरित की जाती हैं। स्थानीय निवासियों की अगाध श्रद्धा के कारण ब्रह्मकमल को पवित्र पुष्प माना जाता है तथा पूजन के उद्देश्य के अतिरिक्त इसको तोड़ना वर्जित है।

ब्रह्मकमल ऐसटेरसी कुल का पौधा है। इसका वैज्ञानिक नाम सोसूरिया अबवेलेटा है। उत्तराखण्ड में इसकी कुल 24 और पूरे विश्व में 210 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। सोसूरिया ग्रार्मिनिफोलिया (फेनकमल), सोसूरिया लप्पा, सोसूरिया सिमेसोनिया तथा सोसूरिया ग्रासोफिफेरा (कस्तूरा कमल) उत्तराखण्ड में पायी जाने वाली इसकी प्रमुख प्रजातियाँ हैं। ब्रह्मकमल, फेनकमल तथा कस्तूरा कमल के पुष्प बैगनी रंग के होते हैं।

ब्रह्मकमल उत्तराखण्ड में कहाँ पाया जाता है | Where Brahma Kamal is found in Uttarakhand
State symbol of Uttarakhand, Brahma Kamal - Saussurea obvallata

उत्तरकाशी में हर-की-दून, टोन्स घाटी, गंगोत्री, यमुनोत्री, टिहरी में खतलिंग हिमानी, उत्तरकाशी में द्वारा बुग्याल, फूलों की घाटी, रुद्रनाथ, रुद्रप्रयाग जनपद में केदारघाटी, नंदादेवी राष्ट्रीय उद्यान, रूपकुंड, बागेश्वर में कफनी, सुंदरढुंगा, पिण्डारी ग्लेशियर तथा पिथौरागढ़ में मिलम हिमनद के पास ब्रह्मकमल की अनेक प्रजातियाँ पाई जाती हैं, तथापि विश्वविख्यात फूलों की घाटी का नैसर्गिक सौंदर्य इस पुष्प से द्विगुणित हो जाता है। इस पुष्प का औषधीय महत्त्व भी कम नहीं है। इसकी जड़ों को पीसकर उसके ठीक करने आदि में होता लेप का उपयोग हड्डी टूटने या कटे हुए भागों में घावों को ठीक करने आदि में होता है, साथ ही उदर रोगों तथा मूत्र विकार में भी यह पुष्प औषधि रूप में प्रयुक्त किया जाता है।

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