गंगोत्री मंदिर (Gangotri temple), भारत की देवभूमि नाम से विख्यात उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी जनपद में स्थित है। समुद्रतल से 3048 मीटर की ऊँचाई पर स्थित गंगोत्री मंदिर या गंगोत्री धाम ऋषिकेश से 255 किमी तथा उत्तरकाशी से 100 किमी की दूरी पर उत्तर-पूर्व दिशा में स्थित है। गंगोत्री मंदिर (Gangotri temple), से 18 किमी की दूरी पर दक्षिण-पूर्व दिशा में गोमुख हिमनद स्थित है जो कि भारत की सबसे पवित्र एंव राष्ट्रीय नदी गंगा का उद्गम स्थल है। गंगोत्री धाम उत्तराखण्ड के पवित्र चार धामों में द्वितीय धाम है। गंंगोत्री मंंदिर (Gangotri temple), के इस ब्लॉग में हम गंगोत्री धाम के बारे में संपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराने जा रहे हैं। गंगोत्री धाम के कपाट खुलने से लेकर कपाट बंद होने तक की संपूर्ण यात्रा की महत्वपूर्ण जानकारी के साथ-साथ आसपास के प्राकृतिक सुन्दरता एंव पर्यटन की जानकारी भी हम इस ब्लॉग के माध्यम से आप सभी के साथ साझा कर रहे हैं। तो आइए जानते हैं गंगोत्री मंदिर (Gangotri temple), के संपूर्ण पौराणिक व आधुनिक तथ्यों को।
गंगोत्री धाम व इसका प्राकृतिक सौंदर्य | Gangotri Dham and its natural beauty
देश - भारत
राज्य - उत्तराखण्ड
जिला - उत्तरकाशी
ऊँचाई - 3,753 मीटर (12,313 फीट)
पौराणिक कथा | Mythological facts of Gangotri temple
गंगोत्री मंदिर (Gangotri temple), के पौराणिक इतिहास हमें बताता है कि धरती पर स्थित इस पुण्य धरा पर माँ गंगा का साक्षात अवतरण हुआ वह स्वर्ग से भी ज्यादा पुण्य व पूजनीय है। गंगोत्री मंदिर (Gangotri temple), का इतिहास अति प्राचीन है। पुराणों में वर्णन किया गया है कि सतयुग में एक समय राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान प्रारंभ किया। इस अनुष्ठान से इंद्र को अपने सिंहासन छिन जाने का भय हुआ। उसने राजा सगर के यज्ञ में विघ्न डालने के अभिप्राय से यज्ञ में अभिषिक्त घोड़े को चुरा लिया और कपिल देव मुनि जिस समय समाधि स्थित थे चुपके से घोड़े को उनके आश्रम के पीछे बाँध कर चला गया।
इधर घोड़े के खो जाने पर राजा सगर ने अपने साथ हजार पुत्रों को घोड़े की खोज में भेजा। राजा सगर के पुत्रों ने स्वर्ग मृत्यु, पाताल सभी जगह ढूँढा परंतु घोड़ा कहीं ना मिला। अंत में लौटते हुए मार्ग में कपिल देव का आश्रम मिला। वहाँ आश्रम के पीछे उन्होंने अपना घोड़ा बँधा हुआ पाया। मुनि उस समय भी योग समाधिस्थ थे। उनको यह भी मालूम नहीं था कि उनके आश्रम के पीछे कोई घोड़ा बँधा है। सगर के पुत्रों को कालवस कपिल देव पर घोड़ा चुराने का संदेह हुआ। उन्होंने बिना विचारे मुनि को अनेक अपशब्द कहे एवं मुनि को सताना आरंभ किया। जिस कारण ऋषि की समाधि खुल गई और उनका अत्याचार देखकर उनकी क्रोधाग्नि भड़क उठी। ऋषि ने क्रोध बस उनको श्राप दिया। सगर पुत्र तत्काल भस्म होकर एक राख के बड़े ढ़ेर के रूप में बदल गए।
राजा सगर को इस बात का पता चलने पर की महर्षि कपिलदेव के श्राप के कारण उसके साथ हजार पुत्र राख के ढ़ेर में बदल चुके हैं एवं उनकी मृत्यु हो चुकी है, वह कपिल देव से क्षमा माँगने जा पहुंचे। कपिल देव ने योगबल से मालूम किया कि यह सब इंद्र का छल कपट था। सगर के पुत्रों ने अज्ञानतावश फल पाया है। तब कपिल देव ने राजा सगर से कहा मैंने बिना विचारे इनको भस्म किया है। यह मेरा धर्म है कि इनकी आत्मा का उद्धार हो जाए। इनकी मुक्ति का उपाय मैं तुझे बताता हूँ।
ऋषि कपिलदेव ने कहा यदि साक्षात ब्रह्म द्रव्य गंगा जी का जल ब्रह्मलोक से लाकर इस ढ़ेर पर चढ़ा दिया जाए तो यह सब के सब तत्काल बिना प्रयास मुक्ति को प्राप्त हो जाएंगे। ऐसा सुनने पर राजा सगर ने उत्तर दिया प्रभु मुझमें इतनी शक्ति कहाँ? मुनि ने कहा मैं कहता हूँ कि एक समय अवश्य गंगा की धारा से मुक्त हो जाएंगे जब तुम्हारे ही वंश में इनका का उद्धार करने वाला पैदा होगा। राजा सगर की तीसरी-चौथी पीढ़ी में राजा भगीरथ का जन्म हुआ। बाल्यावस्था व्यतीत होने पर जब उनको राजसिंहासन प्राप्त हुआ तो उसने यह प्रतिज्ञा की कि जब तक मैं उन पित्रों का उद्धार ना करूंगा तब तक राज नहीं करूँगा।
गंगा के धरती पर अवतरण हेतू भगीरथ का कठोर तप
गंगा को धरती पर अवतरित करने एवं अपने पित्रों का उद्धार करने हेतु राजा भागीरथ राजपाट को त्याग कर सीधा हिमालय को चल पड़ा। एक हिमश्रृंग पर श्रीमुख या श्रीकण्ठ था, आहार निद्रा और भय को त्यागकर उग्र तप गंगा प्राप्ति के लिए करने लगा। भागीरथ का ऐसा कठिन व्रत और तप देखकर गंगा जी ने ब्रह्मलोक से आकर उसे दर्शन दिया और वर मांगने को कहा। भगीरथ ने अपना मंतव्य बताया। तब भगवती गंगा ने कहा मैं तेरी इस उग्र तपस्या के वशीभूत होकर मृत्यु लोक में आने को तैयार हूं परंतु त्रिलोक में एक महादेव के अतिरिक्त ऐसा कौन है जो मेरी धारा के प्रबल वेग को अपनी शक्ति से थाम सके क्योंकि यदि उसको ग्रहण करने वाला ऐसा शक्तिशाली विद्यमान ना होगा तो धारा के गिरते ही पृथ्वी के खंड-खंड हो जाएंगे।
तब भगीरथ ने भगवान भोलेनाथ का व्रत किया। यह तप भगीरथ ने एक दूसरे हिमश्रृंग पर किया था जिसका नाम ‘सुमेरू’ और ‘सतोपंथ’ है। तब शिवजी ने भगीरथ को दर्शन दिया और वर मांगने को कहा। भगीरथ ने स्तुति करने के पश्चात अपना मंतव्य बताया। शिवजी गंगा के वेग को धारण करने के लिए तैयार हो गए। शिवजी अपनी जटा फैला कर दोनों हाथों से कमर को सहारा देकर गंगा की धारा की प्रतीक्षा करते हुए आकाश की ओर टकटकी लगाकर देखने लगे, तभी आकाश में बिजली जैसी चमक के साथ-साथ वज्रपात जैसा शब्द हुआ उसके साथ ही साथ गंगा की धारा का अवतरण हुआ शिवजी ने धारा के वेग को अपनी जटा में थाम लिया और गंगा की धारा शिवजी की जटा में मालती की माला के समान शोभायमान होती हुई चक्कर खाने लगी।
जब धारा का वेग हल्का हो गया तो शंकर त्रिलोक्य निधि को पाकर भागीरथ देने का विचार भूल गए उस दिन वैशाख मास की ‘शुक्ल सप्तमी’ थी। इसी से वह तिथि गंगा जी की जन्म तिथि मानकर ‘गंगा सप्तमी’ के नाम से प्रसिद्ध है। जब शिवजी गंगा प्राप्त करके भागीरथ को देने का विचार भूलकर अंतर्ध्यान हो गए तब भागीरथ ने फिर शिवजी का व्रत किया तब शिवजी ने प्रसन्न होकर एक दिव्य रथ को देकर कहा कि इस पर बैठकर चल गंगा की धारा स्वतः ही रथ के पीछे-पीछे चली आएगी। तब उस पर्वत शिखर से गंगा दस धारा में होकर अलग-अगल बह चली। केवल मोक्ष धारा भागीरथ के पीछे चलने लगी। इसी से उस धारा का नाम भागीरथी हुआ।
ऐतिहासिक तथ्य | Historical facts of Gangotri temple
भगीरथी नदी के किनारे पर स्थित गंगोत्री तीर्थ हिन्दुओं के लिए कई सदियों से अध्यात्मिक प्रेरणा का स्रोत रहा है। 1980 के दशक में जब गंगोत्री की सड़क बमी तब से इस जगह का विकास द्रुत गति से हुआ। इससे पहले हिंदुओं के इस पावन तीर्थ की यात्रा पैदल मार्ग द्वारा ही तय की जाती थी। इतिहासकारों की मानें तो जिस गंगोत्री मंदिर (Gangotri temple), के आसपास गंगोत्री शहर विकसित हुआ उसका इतिहास 1200 वर्ष पुराना है।
जहाँ पर वर्तमान में गंगोत्री मंदिर है ऐसा माना जाता है कि पहले वहाँ पर यह मंदिर स्थित नहीं था। गंगोत्री में सेमवाल पुजारियों के द्वारा गंगा माँ के साकार रूप यानी गंगा धारा की पूजा की जाती थी। यात्रा मौसम के वक्त मुखबा गाँव से लाई गई माता की मूर्तियों को भागीरथी शिला के निकट एक मंच पर तीन-चार महीनों के लिये देवी-देताओं की मूर्तियां रखी जाती। जिन्हें यात्रा मौसम के बाद फिर उन्हीं गांवों में लौटा दिया जाता था।
18वीं सदी सन् 1803 के भूकंप के बाद क्षतिग्रस्त हो जाने पर गंगोत्री मंदिर का निर्माण सेमवाल पुजारियों केेे निवेदन पर गढ़वाल के गुरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने किया था। यह मंदिर उस जगह बना था जहाँ भागीरथ ने तप किया था। इसके बाद जयपुर के राजा माधो सिंह द्वितीय/जयबहादुर ने 20वीं सदी में गंगोत्री मंदिर (Gangotri temple), की मरम्मत करवायी।
गंगोत्री मंदिर के आसपास के आकर्षण | Attractions around the Gangotri temple
गंगोत्री धाम व इसका प्राकृतिक सौंदर्य | Gangotri Dham and its natural beauty
गंगोत्री मंदिर | Gangotri temple
गंगोत्री मंदिर (Gangotri temple), क्षेत्र केदारनाथ हिमालय के ठीक पीछे गंगा जी के दक्षिणी कूल पर भागीरथी-गंगा घाटी में सघन देवदार वन के पास 3,753 मीटर (12,313 फीट) की ऊँचाई पर एक पवित्र शिला के ऊपर स्थित है। गंगोत्री से कुछ दूरी पर केदार गंगा गौरी कुंड के पास गंगा जी से मिलती है। गंगा जी का मंदिर 18वीं शताब्दी के आरंभ से ही इस पवित्र शिला के ऊपर बना है। यह मंदिर लगभग 12 से 13 फीट ऊँचा है। प्राचीन मंदिर जो शंकराचार्य का बनाया हुआ कहते हैं वह छोटा था उसको उठाकर नया मंदिर बनाया गया।
इसी के पास भैरव का मंदिर भी स्थित है। गंगा जी के मंदिर में गंगा जी की मूर्ति के साथ-साथ भागीरथ और कुछ अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां भी स्थित है। भागीरथी गंगा के किनारे पर भागीरथ शिला है जिस पर लोग अपने पित्रों का पिंड देते हैं। यहीं पर ब्रह्मा कुंड और विष्णु कुंडली है। गंगोत्री धाम के निकट ही धर्मशालाएं, दुकाने और पुजारियों के रहने के मकान भी बने हुए हैं।
गंगोत्री से 6 मील नीचे जह्नु ऋषी का आश्रम है जिसे लोग जाँगला कहते हैं। वहाँ पर नीलंग घाट से उतरती हुई जाड़ गंगा भागीरथी गंगा में सम्मिलित होती है। इस स्थान का नाम भैरौंघाटी है। भैंरौघाटी में भैरों का मंदिर है।
गरतांग गली | Gartang Gali
भैरों घाटी में जाड़ गंगा के ऊपर एक पुल है जो लोहे के तारों के रसों और लकड़ी का बना हुआ है। इसकी लंबाई 250 फीट, ऊँचाई 350 फीट और चौड़ाई 3 फीट है। यह पुल पहले गंगोत्री जाते हुए पार करना पड़ता था परंतु अब नीचे चिंगम के पास सड़क और पुल बन जाने से कई वर्षों से यह पुल एक स्मारक रूप में बेकार पड़ा था। यह बड़ा ही उग्र स्थान है। यहाँ से एक मार्ग इसी जाड़ गंगा के किनारे-किनारे नीलंग दर्रा होकर तिब्बत को जाता है जिस मार्ग से पूर्व में तिब्बत के साथ व्यापार करने वाले व्यापारी आते जाते थे।
इस रास्ते को आज वर्तमान में के नाम से जानते हैं। गरतांग गली उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी जिले से 90 किमी की दूरी पर स्थित है। भारत-चीन युद्ध के बाद लकड़ी का यह सीढ़ीदार पुल मार्ग बंद कर दिया गया था, लेकिन अब यह पर्यटकों के लिए खुला है। पेशावर से आए पठानों ने 150 साल पहले 11000 फीट की ऊँचाई पर इस पुल का निर्माण किया था। वर्ष 1962 से पहले भारत-तिब्बत के व्यापारी याक, घोड़े और खच्चर, भेड़ और बकरियों पर सामान लादकर इस मार्ग से आते-जाते थे। गरतांग गली सबसे पुराना व्यापार मार्ग हुआ करता था। यहाँ से ऊन, गुड़ और मसाले भेजे जाते थे। 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान, गरतांग गली ने सेना को अंतरराष्ट्रीय सीमा तक ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
गौमुख | Gaumukh
गोमुख हिमनद मध्य हिमालय का महत्वपूर्ण हिमनद है जो कि भागीरथी (गंगा) नदी का उद्गम स्थल है। यह स्थल गंगोत्री से 18 किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण-पूर्व दिशा में पैदल मार्ग पर स्थित है। गौमुख समुद्रतल से 4,023 मीटर (13,200 फुट) पर स्थित हिन्दू धर्म में एक पवित्र स्थल व तीर्थ है।
यही एक नीलमणि के सदृश नीलमणि की गुफा से गंगा की धारा बाहर को प्रवाहित होती है जो लगभग चौड़ाई में 10 या 15 फीट से अधिक और गहराई में 3 या 4 फीट से अधिक नहीं है। गंगा की धारा गुफा के अंदर से बड़े वेग से बाहर को आती है। भागीरथी गंगा, गोमुख जैसी आकृति वाले पर्वत से निकलती है तभी उसको गौमुख कहते हैं।
गंगोत्री-चीडबासा-भोजबासा | Gangotri-Chirbasa-Bhojbasa
गंगोत्री से भोजबासा का ट्रैक अत्यंत रमणीक एवं दुर्गम है। गंगोत्री से दो किलोमीटर आगे कनखू नामक स्थान पड़ता है। यहाँ से गंगोत्री राष्ट्रीय पार्क शुरू हो जाता है और परमिट चेक किये जाते हैं। यात्री, अपना परमिट या तो उत्तरकाशी जिला वन विभाग से बनवा सकते हैं या फिर यहाँ पर भी बना सकते हैं। परमिट चेक होने के बाद सामान की भी चेकिंग होती है और प्लास्टिक के सामानों की भी गिनती होती है। बिस्कुट के पैकेटों और प्लास्टिक की बोतल आदि जितनी यात्री आगे ले जायेंगे, उतनी ही वापस भी लानी पडेंगी। साथ ही यहाँ भी सौ रुपये लिये जाते हैं। लेकिन लौटते समय वापस भी कर दिये जाते हैं।
कनखू से सात किलोमीटर आगे चीडबासा है जहाँ अचानक चीड के पेडों का बाहुल्य हो जाता है। यहाँ वन विभाग की पौधशाला भी है, जिसकी मदद से खूब वृक्षारोपण किया जाता है, यहाँ तक कि गौमुख क्षेत्र में भी। चीडबासा के शुरू में ही एक छोटी सी नदी आती है, जिसे पार करने के लिये लकडी का पुल बना हुआ है। चीडबासा में भी यात्रियों की परमिटों की जाँच होती है।
चीडबासा की समुद्र तल से ऊँचाई 3,560 मीटर है। रास्ता अच्छा बना हुआ है। लेकिन पथरीला है तो पैरों को काफी कष्ट पहँचता है। यहाँ सबसे ज्यादा अहम है ऊँचाई। यह इलाका गंगोत्री राष्ट्रीय पार्क का हिस्सा है। अतः यहाँ बहुत ज्यादा प्रतिबन्ध लग गये हैं।
गंगोत्री से भोजबासा लगभग 14 किमी दूर है। यहाँ पर यात्रीगण आराम कर चाय-पानी पी सकते हैं। यहाँ से गौमुख 4 किलोमीटर रह जाता है। खच्चर भी केवल भोजबासा तक ही आते हैं। खच्चर पर बैठने वालों को अगर गौमुख जाना हो तो भोजबासा से आगे साढे चार किलोमीटर तक हर हाल में पैदल चलना ही पडेगा। भोजबासा में एक एक आश्रम है- लाल बाबा का आश्रम। यहाँ रात को रुकने के और खाने पीने के प्रति व्यक्ति 300 रुपये लगते हैं।
भोजबासा में गढवाल मण्डल विकास निगम वालों का एक रेस्ट हाउस है। यहाँ लगभग शाम को साढे सात बजे डिनर मिलता है और एक थाली का चार्ज है लगभग 180 रुपये होता है।
भैरों घाटी | Bhairon Ghati
उत्तरकाशी जनपद में स्थित भैरों घाटी दुनिया की कुछ खूबसूरत घाटियों में से एक है। भैरों घाटी, जाह्नवी गंगा तथा भागीरथी के संगम पर स्थित है। यही वह स्थान है जहां से भागीरथी तेज बहाव के साथ गहरी घाटियों में बहना शुरू करती है जिसकी कलकल करती तेज आवाज कानों में गर्जती है। पूर्व में वर्ष 1985 से पहले जब जाड़गंगा पर झूला पुल सहित गंगोत्री तक मोटर गाड़ियों के लिये सड़क का निर्माण नहीं हुआ था, तब तीर्थयात्री लंका से भैरों घाटी तक घने देवदारों के बीच पैदल ही आते थे और फिर गंगोत्री जाते थे। उत्तराखंड की खूबसूरत घाटियों में एक भैरों घाटी हिमालय का सुंदर मनोहर दर्शन कराती है। जहाँ से आप भृगु पर्वत श्रृंखला, सुदर्शन, मातृ तथा चीड़वासा चोटियों के दर्शन कर सकते हैं। ऐसा माना जाता है कि गंगोत्री मंदिर तक पहुंचने से पहले इस प्राचीन भैरव नाथ मंदिर का दर्शन अवश्य करना चाहिये।
केदारताल | Kedar Tal Lake
उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी जनपद के हिमाच्छादित पर्वतों की तलहटी पर 15000 फीट की ऊँचाई पर स्थित केदारताल, गढ़वाल क्षेत्र की एक खूबसूरत हिमनद झील है। उत्तराखंड में स्थित प्रमुख चार धामों में से द्वितीय धाम गंगोत्री से 18 किलोमीटर की दूरी पर स्थित केदारताल झील उत्तराखंड की सबसे खूबसूरत जिलों में से एक है। प्रकृति प्रेमी, पर्वतारोही एंव ट्रैकर्स के लिए केदारताल ट्रैक एक आदर्श स्थान है।
भागीरथी नदी की सहायक नदी केदारगंगा का उद्गम स्थल केदारताल प्रसिद्ध मृगुपंथ और थलयसागर पर्वत की तलहटी पर स्थित है। पुराणों में ऐसी मान्यता है कि समुद्र मंथन से निकले विष को पीने के बाद भगवान शिव ने अपने कंठ की भीषण ज्वाला को ‘केदार ताल’ का जल पीकर ही शांत किया था। गढ़वाली इसे में ‘अछराओं का ताल’ भी कहते हैं।
हर्षिल | Harshil
प्राकृतिक सौंदर्य | Natural Beauty
भारत के हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी जिले की हिमाच्छादित पर्वत शिखरों के मध्य पवित्र चार धामों में द्वितीय धाम गंगोत्री के रास्ते पर बीच में 2,745 मी (9,006 ft) की ऊँचाई पर स्थित हर्षिल, एक अत्यंत खूबसूरत घाटी है। भागीरथी नदी के तट पर देवदार के सघन वनों से की ओट में यह रमणीक घाटी हर्षिल, उत्तराखण्ड में स्थित सभी विहंगम घाटियों में एक है। गंगा के उद्गम स्थल गंगोत्री धाम के यात्रा मार्ग में होने से इस घाटी का महत्त्व और भी अधिक बढ़ जाता है।
प्रकृति प्रेमी व घूमने-फिरने के शौकीन लोगों के लिए जो पहाड़ों की ठण्डी हवाओं के बीच हरी-भरी वादियों का लुत्फ उठाना पसंद करते हैं, हर्षिल एक पसंदीदा सैरगाह है। यहाँ की मनोरम प्राकृतिक छटा पर्यटकों को मंत्रमुग्ध कर तनाव व सभी प्रकार की चिंताओं से राहत प्रदान करती है।
हर्षिल के सेब व राजमा | Harshil’s apples and kidney beans.
अपनी प्राकृतिक सुंदरता के साथ-साथ हर्षिल अपनी घाटी में उत्पन्न होने वाले फलों, अनाजों एवं दालों के लिए विश्व प्रसिद्ध है। हर्षिल घाटी में पैदा होने वाली राजमा की दाल की गुणवत्ता व स्वाद की वजह से बाजार में इसकी सबसे ज्यादा मांग है। इसके साथ ही हर्षिल घाटी में उत्तम गुणवत्ता के सेब उत्पादित होते हैं।
सेब उत्पादन में हर्षिल, उत्तराखण्ड का एक प्रमुख स्थान है। 19 वीं शताब्दी में ब्रिटिशर विलसन ने यहाँ पहले सेब के पौधे का पौधरोपण किया था। हर साल यहाँ सेब की प्रतियोगिता और प्रदर्शनी भी लगती है जिसमें काफी दूर दूर से लोग अपने बगीचे के सबसे अच्छे सेब लेकर आते हैं। प्रतियोगिता में सबसे अच्छे सेब को पुरूस्कृत किया जाता है। अखरोट भी यहाँ काफी मात्रा में पाया जाता है।
बगोरी गाँव | Bagori Village
उत्तरकाशी जनपद का यह बगोरी गाँव ‘सेबों का शहर’ नाम से विख्यात है। हर्षिल घाटी में सर्वाधिक सेबों की खेती एंव सेब उत्पादन इसी गाँव में होता है। यहाँ आने वाले पर्यटकों का स्वागत चारों तरफ उगे सेबों के वृक्ष करते हैं। मीठे स्वादिष्ट सेबों का आनंद लेने पर्यटक इस गाँव जरूर आते हैं।
पक्षी प्रेमियों के लिए उत्तम स्थान | Best place for bird lovers
हर्षिल घाटी पक्षी प्रेमियों की भी एक पसंदीदा सैरगाह है। बर्ड वाचिंग के लिए इस घाटी को सबसे उपयुक्त स्थान माना जाता है। विभिन्न प्रकार के देशी एवं विदेशी पक्षी यहाँ आकर बसते हैं। ऐसा माना जाता है कि हर्षिल घाटी के जंगलों में 500 प्रकार से अधिक प्रजाति के पक्षी मौजूद हैं कलकल बहती भागीरथी नदी के किनारे पर स्थित घने देवदार के वृक्षों के बीच इन पक्षियों की आवाज पर्यटकों को मंत्रमुग्ध कर देती है एवं यहाँ रुकने के लिए मजबूर कर देती है।
कैसे पड़ा हर्षिल नाम? | How did Harshil get the name?
पौराणिक इतिहास की माने तो ऐसा कहा जाता है कि इस जगह में भगवान विष्णु ने हरी का रूप लिया था और भागीरथी व जलधारी नदी के तेज़ प्रभाव को कम करने के लिए भगवान विष्णु ने यहाँ पर एक पत्थर की शीला का रूप धारण करके इनके प्रचंड प्रभाव को कम किया था। शुरुआती समय में इस जगह का नाम हरिशीला हुआ करता था लेकिन बाद में एक अंग्रेजी अफ़सर फ्रेडरिक विल्सन ने इसका नाम हर्षिल रख दिया था। हर्षिल एक घाटी थी इसलिए इसे वैली कहा जाने लगा। तब 1857 में इसका नाम हर्षिल वैली रख दिया गया।
मुखबा गाँव | Mukhba Village
उत्तरकाशी जिले में स्थित गंगोत्री धाम से कुछ ही दूरी पर स्थित मुखबा गाँव अपनी खूबसूरती व अद्भुत नजारों के लिए प्रसिद्ध है। भागीरथी नदी के तट पर स्थित मुखबा गाँव से ही होकर पर्यटक गंगोत्री धाम पहुँचते हैं। मुखबा गाँव का धार्मिक रूप से उच्च महत्व है। यह गाँव, माँ गंगा की भोगमूर्ति का शीतकालीन प्रवास स्थल है। मुखबा गाँव को मुख्य मठ भी कहा जाता है। उत्तरकाशी जिला मुख्यालय से 75 किमी दूर गंगोत्री राजमार्ग पर स्थित यह गाँव थराली से दो किमी की पैदल दूरी पर बसा है। यह गंगोत्री धाम के तीर्थपुरोहितों का गाँव है जिसमें लगभग तीन-चार सौ परिवार रहते हैं।
मुखबा गाँव माँ गंगा का मायका है और शीतकालीन सत्र के दौरान यहाँ स्थित मंदिर में गंगा माँ की डोली को रखा जाता है। जबकि ग्रीष्मकालीन सत्र में यात्रा के दौरान गंगा माँ की डोली गंगोत्री के मंदिर में विराजती है।
समुद्र तल से 2,620 मीटर की ऊँचाई पर स्थित मुखबा गाँव में माँ गंगा के मंदिर में गंगा माँ की मूर्ति के ऊपर से गंगा निकलती है। जब गंगोत्री क्षेत्र में शीतकाल में भारी बर्फबारी होती है तो 6 माह के लिए गंगोत्री धाम के कपाट बंद कर दिए जाते हैं तब माँ का पूजा-पाठ इसी मुखबा गाँव में होता है।
हिमालय में गंगोत्री नदी बर्फबारी के कारण सर्दियों के दौरान दुर्गम हो जाती है। देवी गंगा के मंदिर में प्रत्येक वर्ष, मूर्ति महोत्सव में दीपावली के दौरान मंदिर में धूमधाम से पूजा की जाती है और भक्तों के द्वारा जुलूस और गढ़वाल राइफल्स के आर्मी बैंड द्वारा एक शाही जुलूस का आयोजन भी किया जाता है।
गंगोत्री मंदिर के कपाट कब खुल रहे हैं?
गंगोत्री धाम के कपाट अक्षय तृतीया के दिन खुलते हैं। इस वर्ष 2022 में गंगोत्री धाम के कपाट 3 मई 2022 को खुल रहे हैं।
संदर्भ | Reference
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very nice words for gangotri dham i liked yours Gangotri Dham
बहुत अच्छा लिखा है आपने, बहुत कुछ जानने को मिला
अपना अमूल्य समय निकालकर आपने ब्लॉग पढ़ा उसके लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
Uttrakhand ke bare me itni achchi jankari di aapne ! Shukriya
बहुत-बहुत धन्यवाद आपका। 🙏